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सत्य: मूल्यवान नहीं, अमूल्य

वाज़े पंच शब्द तित तित घरी सभागे

वक्ता: उस सौभाग्यशाली घर में पाँच शब्दों का वादन रहता है। न होने से, होने का जो बदलाव है, वो गतिमान हो जाने का बदलाव है। वो गति में आ जाने का बदलाव है। जब तक गति नहीं है, पदार्थ भी नहीं है। हिल-डुल कर, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा कर, निर्माण होता है। कैसे आता है ‘न कुछ’ से कुछ भी? वह गति करता है। एक व्रत को लीजिए, उसकी परिधि है, उसका केंद्र है। उसका जो केंद्र है, सर्किल का सेंटर, आपने कभी ध्यान नहीं दिया होगा कि वो होता ही नहीं है।

आपसे कभी कहा जाता है “केंद्र कहाँ पर है?” तो आप बताते हैं, “यहाँ पर है”, निशान लगा देंगे वहाँ पर। पर इस बात को समझिए कि वो है ही नहीं। बिंदु का अर्थ ही यही है कि जो है नहीं, पर जिसके होने की ओर इशारा किया जा सकता है, क्योंकि उसका होना पक्का है। केंद्र का होना पक्का इसलिए है क्योंकि परिधि है, पर जब तक परिधि अस्तित्व में नहीं आई है, जब तक स्थान निर्मित नहीं हुआ है केंद्र से परिधि तक का, तब तक केंद्र है ही नहीं। हमारी आम बोल चाल की भाषा में जिसे हम होना कहते हैं, केंद्र उस अर्थ में है ही नहीं।

केंद्र उसी क्षण अस्तित्व में आता है जिस क्षण परिधि अस्तित्व में आती है। अन्यथा वो किसी और आयाम में रहता है, एक ‘न होने’ का आयाम। क्या प्रमाण है केंद्र के होने का? परिधि, परिधि है केंद्र होगा; पर कहाँ है? नहीं दिखता, कह ही नहीं सकते कि यहाँ पर है। स्पष्ट ही है कि जगत उस क्षण अस्तित्व में आता है, जिस क्षण केंद्र अपने न होने से फ़ैल कर, होने की यात्रा कर देता है, इसी यात्रा को मैं गति कह रहा हूँ। जगत उस क्षण आता है अस्तित्व में, जिस क्षण वो केंद्र अपना विस्तार करता है। तब समय का और स्थान का, आकाश का दोनों का एक साथ निर्माण हो जाता है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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