सत्य की तलाश में प्रयास साधन या बाधा?

सत्य की तलाश में प्रयास साधन या बाधा?

प्रश्नकर्ता: अद्वैत ज्ञान में अक्सर बताया जाता है कि प्रयास, प्रयत्न, ये सब सत्य प्राप्ति में बाधक हैं। लेकिन योगवासिष्ठ के अध्याय ‘मन का विलीन’ में प्रयास पर ख़ास ज़ोर दिया गया है। तो प्रयास करें कि न करें? प्रयास लाभप्रद है या हानिप्रद? आध्यात्मिक खोज में जब सत्य लक्ष्य हो तो प्रयास साधन है कि बाधा है?

आचार्य प्रशांत: समझते हैं। प्रयास आप किसको कहते हैं? बिलकुल ज़मीन पर आकर बात करते हैं। आपने रातभर जागकर ग्रन्थ पढ़ा, स्वाध्याय किया, चिंतन-मनन किया, तो आप कहेंगे, “मैंने रातभर प्रयास किया।” ये हाथ बढ़ा और उसने इन पन्नों को उठाया, आप कहेंगे, “आपने प्रयास किया।” प्रयास यही है न? कर्म। कुछ कर्म होता है तो आप नाम लेते हैं प्रयास का। आप कहते हैं, “प्रयास हुआ।”

कर्म मानसिक भी हो सकता है, उसको भी आप प्रयास ही मान सकते हैं। कोई बैठ करके घोर गंभीर चिंतन किए जा रहा है तो उसको भी आप यही कहेंगे कि ये व्यक्ति समझने का प्रयास कर रहा है। कोई सोच रहा है, सोच में डूबा है तो आप कहेंगे प्रयास कर रहा है।

तो ये हाथ बढ़े किधर को, तो प्रयास हुआ। कर्म प्रयास का द्योतक भी है और प्रमाण भी है। तो आप पूछ रहे हैं, “कर्म अच्छा है कि बुरा सत्य की प्राप्ति के लिए?” ज़ाहिर सी बात है, न अच्छा है, न बुरा है।

कर्म कहाँ से आ रहा है? काहे को हाथ बढ़ाया, भाई? सारी बात तो इतनी से ही है न? प्रश्न ही ज़रा निराधार हो जाता है कि कोई पूछे, “सत्य की प्राप्ति के लिए हाथ बढ़ाना उचित है कि अनुचित?” अब हाथ बढ़ाना उचित है या अनुचित, मैं क्या बताऊँ? किसका हाथ है…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org