सच्चा प्रेम कैसा?
ये लड़के-लड़कियाँ कैमरे के सामने उछल-कूद मचा रहे हैं और कह रहे हैं, “इश्क़-इश्क़!” इन्हें इश्क़ का क्या पता? ये तो रूखे लौंडे है, क्यों भई! इश्क़ का पता तो किसी रुमी को होता है, किसी हाफिज़ को होता है, अरे बाबा-फरीद को होता है। तुम कहोगे, “पर वो तो बाबा-फरीद, सफेद दाढ़ी! बूढ़े!” वही असली इश्क़ है। ये थोड़े ही है कि फूल लेकर के एक-दूसरे के पीछे दौड़ने लग गए, झाड़ियों मे घुस गए, इलू-इलू गाने लगे, होटल में कमरा बुक करा लिया तो ये इश्क़ है; बचपना, नौटंकी, कठपुतली का खेल! इश्क़ है जब कोई जीसस चढ़ा हुआ है सूली पर, वो है इश्क़। उनसे जाकर पूछिए वो बताएँगे प्यार क्या होता है।
प्यार जिसने जान लिया, उसको फिर ये गुड्डे-गुडिया वाला प्यार बड़ा बचकाना लगता है। वो कहता है, “ये कर क्या रहे हो?” जैसे छोटे-छोटे बच्चे खेलें, “यह मेरी गुईया, यह तेरा गुड्डा आज इनका ब्याह है”, और इतने-इतने (छोटे-छोटे) बर्तनों में खाना पकाया जा रहा है बैठ कर। चार-चार साल के लड़के निक्कर पहन कर और छः-छः साल की लड़कियाँ फ्राॅक पहन कर आईं हैं शादी मनाने।
कैसा लगता है जब वो सब देखते हो?
उस पर मुस्कुरा सकते हो, पर उसे गम्भीरता से तो नहीं ले सकते न? तो ये जो हमारा आम सामाजिक प्यार है वो वैसा ही है। “मेरी गुईया को लड्डू के गुइये से प्यार हो गया है, आप सब लोग शाम को जलूल-जलूल आना।” ये काम चार साल वाले करते हैं तो आदमी मुस्कुराता है कहता है, “क्यूट (मनोहर)!” पर यही काम चालीस साल वाले करें तो बात थोड़ी गम्भीर हो जाती है। अब मामला मुस्कुराहट की सीमाएँ पार कर गया है, अब मनोचिकित्सक की ज़रूरत है। पर चालीस तो चालीस है, साठ…