सच्चा प्रेमी कौन ?
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रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार
संत रहीम
वक्ता: “जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाही तोडू रे”, तुम्हारा ही हक़ है कि नाराज़ हो सको। क्योंकि तुम ही हो जो नाराज़ हो कर भी नाराज़ नहीं होओगे। तुम ही हो जो गति करते हुए भी अचल रह जाओगे। तुम ही हो जो बाहर से लाल-पीले होते हुए भी भीतर रंग-हीन रह जाओगे। हम नहीं हो सकते नाराज़ क्योंकि हम जब नाराज़ होते हैं तो हम नाराज़ ही हो जाते हैं। हम जब क्रोधित होते हैं तो हम क्रोध ही बन जाते हैं। हम नहीं हो सकते नाराज़। तुम्हें पूरा हक़ है नाराज़ होने का।
सिर्फ़ उसी को नाराज़गी का हक़ है, जो नाराज़ हो ही ना सकता हो।
सिर्फ़ उसी को गति का हक़ है, जो अपनी जगह से हिल ही ना सकता हो।
सिर्फ़ उसी को हज़ारों में खो जाने का हक़ है, जो कभी खो ही ना सकता हो।
सिर्फ़ उसी को रूठने का हक़ है, जिसका प्रेम अनंत हो।
“रूठे सुजन मनाइए जो रूठे सौ बार”
तुम्हारा काम है रूठना।
तुम जब भी रूठोगे, हमें कुछ बताने के लिए ही रूठोगे।
तुम जब भी रूठोगे, वो तुम्हारे प्रेम का ही प्रदर्शन होगा।
तुम जब भी दूर जाओगे, हमें और करीब बुलाने के लिए ही जाओगे।
मूर्ख होंगे हम अगर तुम्हारे रूठने का और भी कोई अर्थ निकालें।
ये सु-बुद्धि है।
ये कहती है कि मैं अपनी सीमाएं जानती हूँ। एक ही है जो सुजन कहलाने योग्य है, उसको अपनी छोटी-सी सीमाओं में बांधूंगी नहीं। वहाँ तो जो कुछ भी हो रहा होगा, भला ही हो रहा होगा; वहाँ तो जो भी मुझे रास्ता दिखलाया जा रहा होगा, वो वापसी का ही रास्ता होगा।
“रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार”
हार टूटता है क्योंकि धागा कमज़ोर होता है, मोतियों में नहीं कोई खोट होती। और संतो ने हमेशा गाया है — “तुम भये मोती पिया, हम भये धागा”। तो हार यदि टूट रहा है तो हमारे कारण टूट रहा होगा, तुम्हारे कारण नहीं टूट रहा है। मोती थोड़ी टूटते हैं, धागा टूटता है।
हार टूट रहा हो तो कोई मूर्ख ही होगा जो मोतियों को मूल्यहीन समझ ले। हार यदि बार-बार टूटता प्रतीत हो, तो अंतर्गमन की ज़रुरत है। अपने धागे को देखो कि उसमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि उन मूल्यवान मोतियों को, बड़े-बड़े चमकते-सुंदर मोतियों को वो गूथ भी पाए; अपने धागे को मज़बूत करो। मोतियों को हक है रूठ जाने का; धागा टूटेगा, मोती रूठेंगे।