सच्चा पछतावा
ज़्यादातर हमें जो दुख होता है, वह घटना का नहीं होता है, परिणाम का होता है क्योंकि परिणाम हमारी उम्मीदों के अनुसार नहीं आया था। हम जो चाहते थे वह हुआ नहीं, चोट लग गई, असफलता झेलनी पड़ी कुछ नुकसान हो गया — हमें इस बात का पछतावा रहता है। कर्म का पछतावा नहीं रहता।
कर्ता बिगड़ा हुआ था — कर्ता माने जिसने कर्म किया — कर्म गड़बड़ हुआ और कर्म के पीछे जो कर्ता बिगड़ा हुआ था, इन बातों का हमें नहीं पछतावा रहता। हमें पछतावा यह रहता है कि जो कर्म किए उसका नतीजा अच्छा नहीं मिला, चोट लग गई।
ऐसे पछतावे से कोई लाभ नहीं होता। पछतावे का मतलब होता है पीछे जो किया जाए। पछ समझ रहे हो? पाछे, पीछे जो भावना उठे। माने वह समय बीत गया, वह कर्म बीत गया, वह घड़ी बीत गई, अब उसके बीतने के कुछ समय बाद तुम्हारे भीतर जो ग्लानि उठ रही है, जो दर्द उठ रहा है उसको पछतावा कहते हैं।
अगर पछतावा वाकई सच्चा हो तो वह परिणाम की ओर कम देखेगा, वह प्रक्रिया की ओर देखेगा। और प्रक्रिया में कौन है? प्रक्रिया में है कर्म और कर्ता। फिर पछतावा बस यह नहीं मनाएगा कि, “काश अंजाम दूसरा आ जाता!” ज़्यादातर हमारा पछतावा यही रहता है न। क्या रहता है? कि जो घटना घटी काश उसका परिणाम, उसका अंजाम दूसरा आ जाता। यह झूठा पछतावा है। यह झूठे पछतावे की निशानी है, इसको पकड़ लो बिलकुल। झूठा पछतावा बस यह बोलता है कि, “काश अंजाम दूसरा आ जाता।”
जो सच्चा पछतावा होता है वह कुछ और बोलता है। वह क्या बोलता है? वह बोलता है कि, “प्रक्रिया ही दूसरी होनी चाहिए थी न।” और प्रक्रिया में मैंने क्या कहा, कौन-कौन शामिल होते हैं? कर्म और…