संसार श्रम, सत्य विश्राम
संसार श्रम है, संसार का अर्थ ही है मन का भागना। श्रम से अर्थ शारीरिक श्रम नहीं है कि माँसपेशियाँ हिल-डुल रही हैं। सारा श्रम मानसिक होता है। सभी कुछ मानसिक है, श्रम भी मानसिक है। इसलिए संसार में किसी को कुछ मिल नहीं सकता, सिवाय थकान के।
कबीर कहते हैं-
ये संसार काँटों की झाड़ी,
उलझ-उलझ मर जाना है,
ये संसार कागज़ की पुड़िया,
बूँद पड़े घुल जाना है।
रहना नहीं देश बेग़ाना है।
जो भी कोई ये सोचे कि कुछ पाकर संसार में उसे शान्ति मिल जायेगी, वो अपने आप को धोखा दे रहा है। संसार ने सिर्फ थकाया है, घाव दिए हैं, नोंच खाया है, और ये आपकी नहीं, ये जगत की कहानी है। और याद रखिएगा, मैं संसार कह रहा हूँ तो उससे अर्थ है, हमारा संसार, हमारा अवास्तविक संसार।
अहंकार कहता है, मुझे अपनी परवाह खुद करनी है: मैं न करूँगा तो काम होंगे कैसे? श्रद्धा कहती है: सब हो जाएगा, तुम ज़रा बीच से हटो। बिल्कुल विपरीत हैं दोनों।
अहंकार कहता है श्रम,
श्रद्धा कहती है विश्राम।
अहंकार आपसे गहरा श्रम कराएगा, आपको तोड़कर रख देगा, एक-एक बूँद निचोड़ लेगा, ‘और करो, और करो… कुछ पाना है, कहीं पहुँचना है, कुछ छूटा जा रहा है, कुल इतने ही साल का तो जीवन है, उसी में सब कुछ उपलब्ध होना है’ — ये सब अहंकार है।
श्रद्धा कहती ही नहीं कि कितने साल का जीवन है, उसे विचार ही नहीं आता समय का।