संसार की सच्चाई क्या?
भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित् परमर्थतः।
नास्त्यभावः स्वभावनां भावाभावविभाविनाम् ॥१८-४॥
~ अष्टावक्र गीता
अर्थ: विश्व तुम्हारी चेतना में उभरा हुआ एक चित्र है। विश्व तुम्हारी चेतना में उठती-गिरती एक तरंग है। जिसने जान लिया कि क्या अस्तित्वमान है, और क्या अस्तित्वहीन है वह जन्म मरण के पार चला जाता है। वह अमर हो जाता है।
आचार्य प्रशान्त: दो बातें कही गई हैं। पहली जो कुछ तुम्हें दिख रहा है वह तुम्हारी चेतना में बनती बिगड़ती आकृति मात्र हैं। और दूसरी बात जिसने समझ लिया कि क्या है जो वास्तव में है और क्या है जो बस प्रतीत होता है, भाषित होता है। वह मृत्यु से छूटकर अमर हो जाता है।
जो कुछ भी तुम्हें दिखाई देता है वह तुम्हीं हो। अपने आपको तन और मन मानते हो न? तो इसलिए जैसा तुम्हारा तन है वैसा ही तुम्हें संसार दिखाई देता है ओर जैसा तुम्हारा मन है वैसा ही तुम संसार में अर्थ भर देते हो।
तन कैसा है तुम्हारा? कहीं छोटा, कहीं बड़ा, कहीं गोल, कहीं सपाट, कहीं छपटा, कहीं तिकोना, कहीं चौकोर, कहीं नुकीला, कहीं दबा, संसार भी तो ऐसा ही दिखाई देता है ना?
संसार तुम्हें मूर्त रूप में पदार्थ रूप में जैसा दिखाई देता है। वो वास्तव में तुम्हारे तन का ही विस्तार हैं। जिस आयाम में तुम अपने तन को देखते हो, उसी आयाम में तुम संसार को देखते हो। और तन का भी एहसास तुम्हें कब होता है, सोते समय होता है क्या? सोए हुए रहते हो शरीर है ऐसा कुछ पता रहता है? तन का भी एहसास तुम्हें जब चैतन्य हो जाते हो…