संशय, प्रमाद और आलस क्यों हावी होते हैं?

संशय, प्रमाद, आलस में सम्बन्ध जड़ का है। जैसे किसी पेड़ की तीन टहनियों में तुम पूछो कि — “सम्बन्ध क्या है?” तीनों सम्बन्धित हैं जड़ से। तीनों की जड़ एक है, ये सम्बन्ध है। तीनों हैं हीं इसीलिए, ताकि तुम मुक्ति से दूर रहो। व्यर्थ काम की ओर तुम न बढ़ना चाहो, उसको आलस्य, या प्रमाद, नहीं कहते। आलस्य या प्रमाद का सम्बन्ध सदा सार्थक काम से है।

जिस अर्थ में, अध्यात्म में ये तीनों शब्द प्रयोग होते हैं, वो हम ठीक से समझते नहीं।

आलस, मन की वो तामसिक अवस्था है, जिसमें मन मुक्ति की ओर अग्रसर नहीं होना चाहता।

‘मुक्ति’ की ओर अग्रसर नहीं होना चाहता, तब कह सकते हो कि मन आलसी है।

और इधर-उधर के छिटपुट काम करने- टिंडा खरीदने जाना है, मन नहीं कर रहा है, बिस्तर पर पड़े हैं — इसको ‘आलस’ नहीं कहते। ये तो हो सकता है ‘वैराग्य’ हो। कि — घर में तुमको धक्का मारा जा रहा है कि — “जाओ, टिंडा, भाजी लाओ।” और तुम कहो, “कौन जाए?” और फ़िर तुम सोच रहे हो कि — ‘हम बड़े आलसी हो गए।” ये आलस्य नहीं है। ये तो मैं कह रहा हूँ, हो सकता है कि वैराग्य हो।

‘आलस्य’ सिर्फ तब है, जब तुम मुक्ति की ओर आगे न बढ़ो।

तब आलस है।

‘प्रमाद’ कब है?

जब तुम मुक्ति की ओर बढ़ने के साधन की ओर देखकर भी, उसकी अवहेलना करो।

तो ‘आलस’, और ‘प्रमाद’ बहुत निकट के शब्द हैं। आलस का मतलब है — मन बनाना कि आगे बढ़ना ही नहीं है। और ‘प्रमाद’ का मतलब है — बढ़ने का तरीका उपलब्ध है, सामने है, पर तुम उसकी अनदेखी कर रहे हो।

इसी तरह से ‘संशय’ है।

झूठ पर तुम्हें शक हो रहा है, वो ‘संशय’ नहीं कहलागा। अपने लड़के को तुमने पकड़ लिया, और उससे पूछ रहे हो, “सच, सच बता, कहाँ था इतनी देर तक?” ये ‘संशय’ नहीं कहलाएगा। सच पूछो तो इसका नाम ‘जिज्ञासा’ है। ‘संशय’ है कि — जब झूठ सामने है, तो भी उसे ‘झूठ’ न बोलो। और सत्य को अभिस्वीकृति न दो। जब तुम झूठ की पोल खोलने को आतुर हो, तो उसको ‘संशय’ नहीं कहते। वो कहलाती है, ‘जिज्ञासा’। ‘संशय’ सिर्फ़ तब है जब सत्य उपलब्ध है, लेकिन तब भी तुम ज़िद कर रहे हो, अड़े हुए हो, कि — ‘इसको तो हम मानेंगे नहीं।”

सत्य बिलकुल उपलब्ध है, प्रत्यक्ष है, फ़िर भी तुम उसे अस्वीकार कर रहे हो, कुछ-न-कुछ बहाना, कुछ-न-कुछ तर्क खड़ा कर रहे हो, इसको कहते हैं ‘संशय’।

ये शब्दों के जो आध्यात्मिक अर्थ हैं, वो बता रहा हूँ। समझ रहे हो?

फ़िर प्रश्न में आगे कह रहे हैं कि — “सही काम में आलस्य, संशय, प्रमाद, तीनों ही आ जाते हैं।” सही में आते हैं…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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