संवेदनशीलता ही प्रेम है

पुरुष एवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥

जो भूतकाल में हो चुका है, जो भविष्यकाल में होने वाला है और जो अन्नादि पदार्थों से पोषित हो रहा है, यह सम्पूर्ण परम पुरुष ही है और वही अमृतत्व का स्वामी है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक १५)

आचार्य प्रशांत: समय की पूरी धारा भी वही है; समय की धारा मर्त्य है, और समय की धारा से बाहर जो अमृत है वह भी वही है। इस पूरे श्लोक का सीधा अर्थ यह है। समय की धारा में जो कुछ है, भूत भी, भविष्य भी और जो वर्तमान की माया है वह भी, सब कुछ परमात्मा है और समय की इस मृत्युधर्मा धारा से बाहर जो अमृत है, वह भी परमात्मा है।

कुल बात क्या हुई?

जिस स्रोत से समय निकला है, समय बस उस स्रोत की अभिव्यक्ति मात्र है। समय अपने-आप में हो नहीं सकता था अगर वह किसी ऐसे का आधार ना लिए होता जो समय में नहीं है।

प्रमाण क्या है इसका?

प्रमाण इसका यह है कि समय में जो कुछ भी है वह समय से बाहर जाने को व्याकुल है; और उसका कोई प्रमाण नहीं है। आदमी का मन और उस मन की वेदना ही सब अध्यात्म का मूल है और सारे आर्ष वचनों का प्रमाण है।

समय, समय से तो नहीं आ सकता न। समय में गतिविधियाँ हैं, हर गतिविधि के पीछे कुछ कारण होता है। जैसे कि एक लंबी ज़ंजीर हो, एक शृंखला हो, उसमें एक-के-बाद-एक कड़ियाँ हैं। हर कड़ी से तुम पूछ रहे हो, ‘तू कहाँ से आयी?’ वो बोल रही है ‘पिछली कड़ी से, पिछली कड़ी है, पिछली कड़ी से’। जो आख़िरी कड़ी है वो कोई कड़ी नहीं हो सकती, क्योंकि अगर वह कड़ी होगी तो उसके पीछे भी फिर कोई कड़ी होगी।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org