संविधान बाहरी व्यवस्था के लिए है, आतंरिक जागृति तो धर्म से ही आएगी

दो तरह की सत्ता चलती थीं सोलहवीं शताब्दी के, सत्रहवीं शताब्दी के यूरोप में। सत्ता के दो केंद्र थे। एक था राजा, ठीक है? जिसका आदेश तुम्हें मानना ही पड़ेगा — ऑथोरिटी। और सत्ता का दूसरा केंद्र था चर्च, ठीक है? एनलाइटेनमेंट ने कहा कि मुझे सत्ता के दोनों ही केंद्र स्वीकार नहीं है, बिल्कुल नहीं चाहिए। इन दोनों को हटाओ। ये दोनों केंद्र सत्ता के बाहर के थे: राजा बताता तुम्हें कि कैसा आचरण करना है, कितना तुमको कर देना है, टैक्स देना है, कैसे नियम बनेंगे, ये सब होता था। और तुम राजा को चुनौती नहीं दे सकते थे। और पादरी तुम्हें बताता था कि व्यतिगत जीवन में तुम्हें क्या करना है, क्या सोचना है, क्या पाप है क्या पुण्य है, तो पादरी को भी चुनौती नहीं दे सकते थे। तो तुम्हें बाहर से निर्देशित किया जा रहा था कि झुको, झुको, झुको। जो यूरोपियन एनलाइटनमेंट था, इसने तुमको सिखाया कि बाहर किसी के भी सामने झुकना नहीं है, और ये बहुत ही सुंदर बात थी, पर ये आधी बात थी।

यूरोप में जो एनलाइटनमेंट हुआ, हम उसकी बात क्यों कर रहे हैं? क्योंकि वही वह केंद्र बिंदु है जहाँ से आज हम उस सवाल तक पहुँच गए हैं जो कह रहा है कि गीता की क्या ज़रूरत है, संविधान है तो। इस सवाल का और जो हुआ सत्रहवीं शताब्दी के फ्रांस में, उसमें बड़ा गहरा ताल्लुक़ है। दोनों बातों को एक साथ समझना पड़ेगा। तो उस समय के विचारकों ने, दार्शिनिकों ने बाहर की सारी सत्ता को ख़ारिज कर दिया। उन्होंने कहा, “वी विल नॉट एक्सेप्ट एनी ऑथोरिटी! नहीं चलेगा, नहीं चलेगा!” ठीक है? अच्छी बात करी, लेकिन मैं कह रहा हूँ, आधी…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org