‘संभोग से समाधि’ की बात क्या है?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ओशो की किताब है, जिससे उन्होंने शुरुआत की थी -‘सम्भोग से समाधि की ओर’। ग्यारहवीं में था जब मैंने पहली बार पढ़ी थी। तब से तीन बार पढ़ चुका हूँ, पर हर बार सोचता हूँ, कि ओशो सेक्स मुक्ति की बात करते हैं, लेकिन वो कहते हैं कि तुम सेक्स को समझ कर ही उससे मुक्त हो सकते हो। हर रोज़ हम सेक्स को समझने की कोशिश करते हैं, मन में ये धारणा होती है कि इससे मुक्त हो जाएँगे, लेकिन नहीं हो पाते। और दैनिक जीवन में कहीं न कहीं आ कर वो हमसे टकरा जाता है। तो इसके बारे में मुझे जानना है।
आचार्य प्रशांत: क्या?
प्रश्नकर्ता: कि हम क्या करें?
आचार्य: सेक्स इधर से, उधर से आ के इसलिए टकरा जाता है, क्योंकि जब उससे आपको, और आपको उससे टकराना चाहिए, तब उसके प्रति असहज हो जाते हैं हम। कि जैसे कोई पुराना हिसाब अभी बाकी हो। तो लेनदार आपसे गाहे बगाहे टकराता ही रहे।
किसी से पैसे ले रखे हैं, और लौटा रहे नहीं। अब उससे बीच-बीच में हो जाती है भिड़ंत। गए थे मंदिर, सोचा था जाएँगे पूजा अर्चना करेंगे, वहाँ मिल कौन गया? लेनदार। तो वो मंदिर भी एक तरफ, मूर्ती भी एक तरफ, फूल भी एक तरफ, देवी भी एक तरफ। अब वो लेनदार खड़ा हो गया है। ऐसा ही हमारे साथ सेक्स के सम्बन्ध में होता है। पुराना कुछ है, जो अभी चढ़ा हुआ है, जैसे ऋण चढ़ा होता है। तो वो सामने आता रहता है, आता रहता है, आता रहता है, आता ही रहेगा।
बाज़ार गए थे, प्रफ्फुलित घूम रहे थे, और अचानक एक तरफ को नज़र पड़ी, देखा वो खड़ा हुआ है। चाहा नहीं था, वो खड़ा रहे, पर अनायास खड़ा…