संबंधों में आसक्ति

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं लोगों से बहुत जल्दी आसक्त हो जाती हूँ। पहले पिता से बहुत आसक्ति थी, फिर पति से, और अब बेटे से आसक्त हूँ, ‘हुक ’ (अंकुड़ा) की तरह फँस जाती हूँ।

पहले मुझे लगता था कि ग़लती दूसरों की है, लेकिन आपको सुना तो जाना कि यह वृत्ति मेरे अंदर ही है।

अभी बेटे से बहुत आसक्ति है। उसका भला चाहती हूँ, पर मैं वह कर नहीं पा रही हूँ। क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: ये हुक है (उँगली से हुक का आकार बनाते हुए)। ये हुक है। इसमें ये चीज़ फँस गई (दूसरे हाथ की उँगली को हुक बने हुए उँगली में फँसाते हुए)। ये (पहली उँगली दूसरी को) इसको उठा भी तो सकती है।

प्र: नहीं, यहाँ तक आने के पीछे और यह समझ आने के पीछे इन हुक ने ही काम किया। क्योंकि जो गहरा दर्द उठा तभी लगा कि इससे छुटकारा पाना है।

आचार्य: इस हुक का सही इस्तेमाल करिए न। हुक में जो चीज़ फँसी है उसको उठाया भी तो जा सकता है न। नहीं समझ रही?

किसी से आसक्त ही तो हो जाती हैं आप। जिससे इतना गहरा रिश्ता बना लेती हैं, उस रिश्ते का इस्तेमाल उसको उठाने के लिए कर लीजिए। या हुक इसी काम आएगा कि किसीको फँसाकर नीचे खींचना है? किसी को हुक में वैसे भी फँसा सकते हैं जैसे मछली फँसाई जाती है। काहे के लिए? कि अब उसका प्राण ही ले लेना है; मार दो, खा जाओ उसको। एक वो भी होता है। और एक हुक वो भी होता है जो सर्जरी में इस्तेमाल होता है। वो किसलिए इस्तेमाल होता है? वो प्राण देने के लिए इस्तेमाल होता है।

प्रकृति ने आपको जो गुण दिए हैं; जैसी आपकी वृत्तियाँ बनाई हैं उन्हीं का इस्तेमाल करके मुक्ति की ओर बढ़ना होता है। और किसका इस्तेमाल करोगे? आपके पास और है क्या? कोई पैदा ही होता है बहुत ऊर्जावान, कोई पैदा होता है…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org