संतुष्ट जीवन का राज़

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। पिछले सत्र में आपने ऐसी निर्ममता से चीर-फाड़ की कि मेरे सारे नक़ाब अस्त-व्यस्त हुए जा रहे हैं।

आज से दो साल पहले की बात है। मैंने किसी से पूछा, “यह अहंकार क्या होता है?” मुझे लगता था कि मुझमें तो अहंकार रत्ती भर भी नहीं है। अब आजकल जीवन को क़रीब से देख रहा हूँ तो भौचक्का रह जा रहा हूँ, मेरे अंदर तो अहंकार के सिवा और कुछ है ही नहीं। जब भी बोलता हूँ, तुलना करता हूँ, हर जगह अहंकार-ही-अहंकार है।

अब एक तरफ़ तो आनंद उठ रहा है कि बीमारी का पता चला, बीमारी को देखने में बड़ा आनंद है, और दूसरी तरफ़ भयानक डर लग रहा है कि जैसे कोई बड़ी क़ीमती चीज़ छूट रही हो। इस दुविधा में राह दिखलाएँ।

आचार्य प्रशांत: पहले पता कर लो कि किस चौराहे पर खड़े हो। पहले पता कर लो कि उस चौराहे से कौन-कौन-सी राह फूटती है, फिर मैं तुम्हें बता दूँगा कि उन राहों में से सही राह कौन-सी है। कोई मुझसे पूछे कि, “किधर को जाऊँ?” तो सर्वप्रथम मैं उससे क्या पूछूँगा?

“खड़े कहाँ पर हो?” पहले यह तो बता दो कि खड़े कहाँ पर हो।

सत्य की ओर एक-दो नहीं, दस-बीस नहीं, अनंत रास्ते जाते हैं। पर तुम्हारे लिए तो उपयुक्त रास्ता वही होगा न जो तुम्हारी मौजूदा स्थिति से निकलता हो। तुम्हारी मौजूदा स्थिति क्या है? उसकी तो कुछ बात करो। और उसकी बात करने के लिए जीवन को ग़ौर से देखना होगा, मन के मौसम का हाल-चाल लेते रहना होगा।

ज्यों ही तुम मुझे साफ़-साफ़ बता दोगे कि खड़े कहाँ हो, त्यों मैं साफ़-साफ़ तुम्हें बता दूँगा कि कौन-सी…

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org