संगठित धर्म और सनातन धर्म में भेद

आचार्य प्रशांत: वो कहानी सुनी ही होगी, एक गाँव में एक फ़क़ीर रहता था, हम्म? तो पूजा के लिए बुलावा आए, अज़ान हो, और वो उपस्थित हो जाए। सालों से ऐसे ही चल रहा था, मान लो कि सौ-साल से ऐसा चल रहा था। एक दिन नमाज़ की ख़बर भेजी गई, अज़ान हुई, वो नहीं आया, लोगों ने कहा, “ये तो मर ही गया है। सौ सालों से आ रहा था, आज नहीं आया, और कोई कारण नहीं, मर गया ये।”

तो लोग दुखी होकर के उसके झोपड़े पर पहुँचे, मरा पड़ा होगा (ऐसा सोचकर)। वो वहाँ बैठकर रसगुल्ले खा रहा है। (यहाँ ‘रसगुल्ले’ अर्थात् व्यंग्य के संदर्भ में आचार्य जी कह रहे हैं), अब ये सब चीजें हैं जो जोड़ने दिया करो, अच्छा लगता है। तो लोगों ने कहा, “बूढ़े आदमी, पूरे जन्म तूने जो पुण्य कमाया, आख़िरी वक़्त पर काहे गँवाता है उसको? तेरे मरने के दिन हैं, एक पाँव तेरा क़बर में, आया काहे नहीं? नमाज़ नहीं अता करी।”

वो बोला, “हो गया, अब हो गया। जिसका बुलावा आता था, हमने उसका बुलावा स्वीकार कर लिया, उससे मिल गए। अब ये बुलावा हमारे लिए नहीं आ रहा, अब ये तुम्हारे लिए है। ये जो पाँच-वक़्त बुलाया जाता है, उनको ही तो बुलाया जाता है ना जो दूर होते हैं। अब मैं दूर रहकर क्या करूँगा? मैं सौ साल का हुआ, मेरी तो मिलने का यही मौका है, मैंने सिर झुका दिया, मैं फ़नाह हुआ। मैं गया, मैं मिल ही गया, मैं मिट गया, मुझे मरा ही मानो। अब मैं हूँ नहीं, तो मुझसे ख़फ़ा ना हो। मरे हुए से भी कोई ख़फ़ा होता है?”

धर्म की यात्रा पर एक बिंदु आता है जब धर्म का अतिक्रमण हो जाता है, आप धर्म को लाँघ

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org