संकोच माने क्या?

‘संकोच’ का उल्टा अर्थ मत निकाल लेना। कोई संकोच नहीं करता, इसका अर्थ यह नहीं है कि वो पूरा मनमौजी हो गया है, निरंकुश हो गया है। ‘संकोच नहीं है’ इसकी एक ही जायज़ वजह हो सकती है — स्पष्टता। स्पष्टता में अगर शांत भी बैठे हो, तो बढ़िया।

हम संकोच न होने का आमतौर पर यह अर्थ निकालते हैं कि यह बिंदास है, कुछ भी जाकर बोल आता है। यह अधूरी बात है, आधी बात है।

जो संकोच नहीं करता वो चुप रहने में भी संकोच नहीं करता — यह पूरी बात हुई। वो बोलने में भी संकोच नहीं करता, और चुप रहने में भी।

तो कभी तुम चुप रह जाओ तो अपने आप को अपराधी मत समझ लेना, मौन बड़ी बात है। और कई बार शब्दों से ज़्यादा कीमती होता है मौन।

हाँ, वो मौन डरा हुआ मौन नहीं होना चाहिए कि ख़ौफ़ है इसलिए आवाज़ नहीं निकल रही। मैं उस मौन की बात नहीं कर रहा। मैं उस मौन की बात कर रहा हूँ जो उचित ही है।

अभी मैं बोल रहा हूँ, और कुछ लोग बिलकुल शांत हैं, सुन रहे हैं, तो यह मौन है। यह ख़ौफ़ का मौन नहीं है, यह ध्यान का मौन है। तुम यह नहीं कह सकते कि अभी यह संकोच का मौन है, बल्कि यह ध्यान का मौन है, जहाँ तुम पूर्णतया सुनने में मशगूल हो। उसमें कोई बुराई नहीं है।

जो चुप बैठा है वो भी ठीक है, बशर्ते कि उसके मन में द्वंद न हो। दिक्कत तब होती है जब द्वंद होता है मन में — “बोल रहा हूँ उसमें भी द्वंद है, और चुप बैठा हूँ, तब भी द्वंद है मन में।”

एक बात और समझिएगा — जिसको चुप बैठने में दुविधा नहीं है, उसी को और सिर्फ़ उसी को, बोलते समय भी दुविधा नहीं होगी।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org