श्रध्दा है समाधान!
यत्राज्ञानाद्भवेद्दवैतमितरस्तत्र पश्यति। आत्मत्वेन यदा सर्वं नेतरस्तत्र चाण्वपि।।
“जहाँ अज्ञान से द्वैत-भाव होता है, वहीं कोई और दिखलाई देता है। जब सब आत्मरूप ही दिखाई देता है, तब अन्य कुछ भी नहीं रहता।”
~अपरोक्षानुभूति (श्लोक ५३)
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि ह्यात्मत्वेन विजानतः। न वै तस्य भवेन्मोहो न च शोकोऽद्वितीयतः।।
“उस अवस्था में सम्पूर्ण भूतों को आत्म-भाव से जानने वाले उस महात्मा को कोई दूसरा न रहने के कारण न मोह होता है और न शोक ही।”
~अपरोक्षानुभूति (श्लोक ५४)
आचार्य प्रशांत: आदिशंकर का कथन है, “जहाँ अज्ञान से द्वैत-भाव होता है, वहीं कोई और दिखलाई देता है। जब सब आत्मरूप ही दिखाई देता है, तब अन्य कुछ भी नहीं रहता। उस अवस्था में सम्पूर्ण भूतों को आत्म-भाव से जानने वाले उस महात्मा को कोई दूसरा न रहने के कारण न मोह होता है और न शोक ही।”
द्वैत हटा, दूसरा मिटा, किसका मोह और किसका शोक? कोई है ही नहीं! किसके लिए रो रहे हो?
बात ये नहीं है कि “मत रोओ!” था कौन, किसके लिए रो रहे हो? वही बात, “मुर्दा मर गया!” कुछ घटना ही नहीं घटी, तुम रो किसके लिए रहे हो?
प्रश्नकर्ता: इस द्वैत-भाव से बाहर कैसे निकलें कि अनेक दिखाई ही न दें, या अज्ञान कैसे मिटे?
आचार्य: बेटा, अनेक सदा दिखाई देंगे। जीव हो जब तक, देहधारी हो जब तक, आँखों को अनेक दिखाई देंगे। एकता इसमें नहीं होती है कि काला-सफ़ेद, पीला-नीला, सब…