शूद्र कौन? शूद्र को धर्मग्रन्थ पढ़ने का अधिकार क्यों नहीं?

प्रश्नकर्ता: मनुस्मृति में लिखा है शूद्रों को वेद पुराण नहीं पढ़ने चाहिए और अगर वो सुने या पढ़ें तो उनके कानों में सीसा पिघलाकर डालने का दंड मिले। यहाँ शूद्र से क्या आशय है और ये सब दंड वगैरह की बात क्यों?

आचार्य प्रशांत: देखो कुछ केंद्रीय बातें समझनी होंगी! जब भी तुम सनातन धर्म की किसी भी पुस्तक या संहिता या स्मृति की बात करो, सनातन धर्म वैदिक धर्म है! ठीक है न? वेद उसके केंद्र में हैं! वेद बिल्कुल उसके केंद्र में है! तो सनातन धर्म से संबंधित तुम्हें कोई प्रथा समझनी हो, कोई पुस्तक समझनी हो, कोई नियम कायदा समझना हो, वो तुमको समझना पड़ेगा ‘वैदिक सिद्धांतों’ को ही आधार बनाके क्योंकि ‘वैदिक सिद्धांत’ ही सनातन धर्म के केंद्र में हैं। वही ‘फर्स्ट प्रिंसिपल्स’ हैं। ठीक है न? वो पहले सिद्धांत हैं, वो पहले सूत्र हैं और जो वैदिक सूत्र हैं वो पाए जाते हैं वेदांत में।

वेदों का ही जो ‘जीवनदर्शन’, ‘आत्मदर्शन’ संबंधित हिस्सा है उसको कहा जाता है वेदांत। उसे वेदांत इसलिए भी कहते हैं क्योंकि वह वेदों का शिखर है। अंत माने उच्चतम हिस्सा, वेद जहाँ पर जाकर अंत को प्राप्त हो जाते हैं, अंत माने खात्मा नहीं, अंत माने शिखर। जैसे कहते हो न चोटी पर पहाड़ का अंत हो गया। उस अर्थ में वेदांत वेदों का अंत है! कि पहाड़ की चोटी पर पहाड़ का अंत हो गया। उस तरीके से उपनिषद वेदों का अंत हैं। उपनिषद वेदों का ही हिस्सा हैं। उपनिषद वेदों से पृथक नहीं हैं, अलग नहीं हैं।

तो तुम्हें हिंदू धर्म से संबंधित कोई भी प्रथा समझनी हो, कोई भी चीज़ समझनी हो तो सबसे पहले तुम्हें वेदांत की समझ होनी चाहिए। वेदांत की जो केंद्रीय बात है उसी को आधार बनाकर, उसी को रोशनी बनाकर तुम्हें बाकी सब बातें समझनी पड़ेंगी सनातन धर्म से संबंधित। ठीक है?

तो वेदांत पर आओ! तुमने पूछा शूद्र कौन हैं और वेदों को पढ़ने पर शुद्र को सजा देने का प्रावधान क्यों?

जब वेदों के पास जाओगे, वेदांत के पास तो वो सबसे पहले आदमी को देह मानने से इंकार करते हैं। पहली चीज़ जो तुमको सिखाई जाती है- वो ये है कि पशु का काम है कि वो एक देह केंद्रित जीवन जिये। वो तुमको सिखाते हैं कि तुम इस वक्त ‘एक अपूर्ण चेतना’ हो, वो अपूर्ण चेतना ‘अहंकार’ कहलाती है। उसे अपूर्ण चेतना की जो सच्चाई है वो ‘आत्मा’ कहलाती है। अपूर्ण चेतना अपने आप में झूठ है क्योंकि अपूर्णता ही उसका झूठ है। वो अपूर्ण चेतना जीवनभर कोशिश करती रहती है पूर्ण होने की। जिस पूर्णता को वो पाना चाहती है उस पूर्णता को ही सत्य या आत्मा कहते हैं। ये वेदांत का मूलभूत सिद्धांत है। समझे? शरीर तुम हो नहीं और मन भी तुम एक झूठे तल पर हो। ये बात अच्छे से समझ लो सबलोग!

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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