शुद्ध शाकाहार क्यों चुनें?
--
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम शाकाहारी क्यों हैं?
आचार्य प्रशांत: देखो, वहाँ तार के ऊपर एक चिड़िया बैठी है, दिख रही है? काहे को खाना उसे?
प्रश्नकर्ता: पेड़-पौधों में भी तो जान होती है, वो भी महसूस करते हैं।
आचार्य प्रशांत: अगर कहती हो कि पेड़ में जान है इसलिए चिड़िया खाऊँगी, तो यह भी कहना पड़ेगा कि क्योंकि चिड़िया में जान है तो इंसान भी खाऊंगी। अगर एक की वजह से दो जायज़ है तो दो की वजह से तीन भी जायज़ हो जाएगा। हो जाएगा न?
प्रश्नकर्ता: हम बचपन में फूड वेब पढ़ते हैं, उसमें था कि जो शेर है वो हिरण को खाता है।
आचार्य प्रशांत: वह लागू होता है प्रकृति पर — तुम प्रकृति से आगे भी कुछ हो! प्रकृति में तो ऐसा भी होता है कि एक प्रजाति अपनी ही प्रजाति का माँस खा जाती है। होता है न? इंसान का सौभाग्य-दुर्भाग्य दोनों यही है कि वह प्रकृति के आगे भी कुछ है, वो चैतन्य है। तो जो कुछ प्रकृति करती है, वह करने को तुम विवश नहीं हो। प्रकृति तो अन्यथा नहीं चाहती कि तुम जिज्ञासा करो। प्रकृति तो यही चाहती है कि तुम जियो और संतान पैदा करो। प्रकृति में तुमने कुछ और होते देखा है?
इस पौधे का पूरा जीवन क्या है? कि खुद बचे रहो शारीरिक रूप से और अपनी मृत्यु से पहले कई अपने जैसे और पैदा कर जाओ। तो प्रकृति तो फिर यही चाहेगी, तो फिर तुम अभी जो जिज्ञासा कर रही हो, जो जानना चाहती हो, जो समझना चाहती हो — गुरुओं की बातें, ग्रंथों की बातें, बुद्धत्व — उसका क्या काम? क्योंकि प्रकृति नहीं चाहती कि तुम बुद्ध बनो। प्रकृति को बुद्धत्व से कोई लेना-देना नहीं। तो सिर्फ इसलिए कि कोई काम प्रक्रति में हो रहा है, वह तुम्हारे लिए ठीक नहीं है! तुमने कहा पेड़ पौधे, वहाँ भी जितना हो सके उतनी कम हिंसा करना चाहिए।
जो कर्म तुम्हारे होने की अपरिहार्यता हैं, उसको हिंसा नहीं कह सकते।
अपरिहार्य! तुम्हारे पेट में बहुत सारे छोटे-छोटे जंतु रहते हैं, बैक्टीरिया, ये, वो, वह बनते-मिटते रहते हैं न? तुम उसके ज़िम्मेदार नहीं। यदि शरीर है तो भीतर कोई जन्म भी ले रहा है, कोई मर भी रहा है — फंगस भी है, बैक्टीरिया भी है, सब है भीतर। वो तो शरीर के होने की अपरिहार्यता हैं। उसमें तुम्हारा कोई चैतन्य निर्णय है ही नहीं। शरीर में तो भीतर कुछ जन्मेगा भी, कुछ मरेगा भी।
शरीर है तो कुछ तो खाना पड़ेगा ही, पर क्या खाना है? इसमें तुम्हें निर्णय करना पड़ेगा। वह खाऊँ जिसमें कम- से-कम हिंसा हो। कुछ हिंसा तो होगी ही क्योंकि कुछ हद तक तो तुम प्रकृति हो ही। जब तक देह है, तब तक तुम अपने प्रकृतिगत अंश को पूर्णतया मिटा नहीं सकतीं, नकार नहीं सकतीं, तो कुछ हिंसा तो होगी ही।