शिव और शंकर में क्या अंतर है?
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प्रश्नकर्ता (प्र): शिव और शंकर में क्या अंतर है?
आचार्य प्रशांत (आचार्य): आम जनमानस में, आम मन में तो ये एक ही हैं — शिव बोलो कि शंकर बोलो कि भोलेनाथ बोलो कि कैलाशपति बोलो। सहस्त्रों नाम हैं। इनको आप एक ही कह देते हैं। पर अध्यात्म की दुनिया में बाकी सारे नाम सिर्फ नाम हैं, और शिव सत्य हैं। सत्यम् शिवम् सुन्दरम्। शिव आत्मा हैं। सिर्फ शिव के लिए आप कह सकते हैं कि ‘शिवोहम्’; आप ‘शंकरोहम्’ नहीं बोलेंगे।
हैं शब्द ही; कुछ नहीं हैं, हैं उच्चारण ही जो गले और होठों से उद्भूत हो रहा है। तो ऐसा कुछ नहीं है, ध्वनियों की ही बात है। लेकिन ध्वनियों में भी कौन-सी ध्वनि इंगित क्या कर रही है, ये जानना ज़रूरी है।
शिव कोई चरित्र नहीं हैं; शंकर का चरित्र होता है। शिव का कोई परिवार नहीं है; शंकर का परिवार-पत्नी-बच्चे ये सब होते हैं। शंकर किसी पुराण के, किसी गाथा के केंद्रीय पात्र हो सकते हैं; शिव नहीं हैं। यहाँ तक कि हम जिसे शिवपुराण के नाम से जानते हैं, वास्तव में वो शिव की नहीं शंकर की कहानी है। शिव सत्य हैं, शिव परमात्मा हैं, शिव वो अनादि-अनंत ज्योति हैं जिसके कारण हम हैं, और जो हम हैं। तो शिव इसलिए पूर्णतया निराकार हैं। वास्तव में, शिव कहना भी शिव को सीमित करना है। आपको वास्तव में यदि शिव कहना है, तो आपको गहरे मौन में ध्यानस्थ होना पड़ेगा। वो शिव हैं। शंकर के बारे में आप जितना कुछ कहना चाहते हैं कह सकते हैं।
प्र: तो शंकर एक अवतार हुए?
आचार्य: शंकर ऐसा समझ लीजिये कि आदमी की कल्पना जितना ऊँचा जा सकती है, और अपने लिए जितना बड़े-से-बड़ा महल खड़ा कर सकती है, और अपने लिए जो प्रबलतम आदर्श स्थापित कर सकती है, वो शंकर हैं। शंकर भी एक ऊँचाई हैं, शंकर मन जितनी अधिकतम ऊँचाई पर उड़ सकता है वो हैं। और शिव हैं उस मन का आकाश में विलीन हो जाना।
मन को पक्षी मानिये। जितनी ऊँचाई तक वो उड़ा — और अभी पक्षी है, पक्षी बनकर उड़ा — उसे शंकर मानिये। और जिस क्षण वो आकाश में ही लुप्त हो गया, उसको शिवत्व मानिये। तो शिव क्या हैं? वो खुला आकाश। शंकर क्या हैं? वो उस पक्षी की ऊँची-से-ऊँची उड़ान हैं, ऊँची-से-ऊँची उड़ान, कि इससे ऊपर अब वो कुछ सोच ही नहीं सकता। तो विचार का उच्चतम बिंदु हुए शंकर, और निर्विचार हुए शिव।
प्र: मैने कहीं पढ़ा था कि जो ये जीव-जंतु या साँप वगैरह दिखाए जाते हैं शिव के, तो ये विकार हैं सारे ही। मतलब सब चीज़े हैं संसार की, लेकिन शिव उनसे निर्लिप्त हैं, अलग हैं, और निर्विकार हैं। जब हम देखते हैं तो कहते हैं कि शंकर-विवाह, शिव-विवाह नहीं कहते।
आचार्य: नहीं, कहने वाले शिव-विवाह भी कहते है।