शास्त्रसम्मत तप और मनःकल्पित तप क्या हैं? दान कब प्रेम बन जाता है?

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।

जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मन:कल्पित घोर तप को तपते हैं, वे दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १७, श्लोक ५

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमन। तप किसे कहते हैं और शास्त्रसम्मत एवं मन:कल्पित तप का भेद क्या है? कृपया समझाने की अनुकम्पा करें।

आचार्य प्रशांत: 'शास्त्र किसको कहते हैं?' ये परिभाषा समझ लें तो फिर ये भी समझ जाएँगे कि शास्त्रसम्मत सीख, सलाह, कोई भी बात क्या होगा जिसे हम कह देते हैं शास्त्रसम्मत। शास्त्र को ही जान लिया तो शास्त्र की बात बड़ी आसानी से जान जाएँगे।

सब शास्त्र किसके लिए लिखे गए? शुरुआत यहीं से करिए। कुछ शास्त्र लिखे गए, कुछ शास्त्रों को हम कह देते हैं कि वो दैवीय वरदान हैं, अपौरुषेय हैं। प्रश्न बहुत बड़ा ये नहीं है कि कहाँ से आए, ज़्यादा बड़ा प्रश्न, मैं समझता हूँ, ये है कि किसके लिए आए।

इस पर ख़ूब बहस होती है कि फलाने शास्त्र का वास्तविक रचनाकार कौन था। बुद्धिजीवियों को देखिए, एक कोई छोटी से किताब होगी, उसके पीछे मोटी-मोटी छः सौ किताबें लिखी गई होंगी कि उस छोटी सी किताब का वास्तविक रचयिता कौन है। बड़ा मज़ा आता है हमें इस प्रकार का अनुसंधान करने में कि ये किसने लिख दी थी। 'अ' ने लिखी कि 'ब' ने लिखी, कि 'अ' और 'ब' ने मिलकर लिखी, कि 'स' ने लिखी थी और 'अ' और 'ब' ने चुरा ली। कहीं ऐसा तो नहीं कि 'स' लिख रहा था और पीछे से 'द' फुसफुसा रहा था।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org