शारीरिक आकर्षण इतना प्रबल क्यों?
प्रश्न: आचार्य जी प्रणाम। आचार्य जी, आपके सत्संग में आना अच्छा तो लगता है, पर आने के लिए बड़ा प्रयत्न करता पड़ता है। दूसरी ओर जब प्रेमिका मिलने के लिए बुलाती है, तो उतना प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत जी: क्योंकि मुक्ति ज़रूरी नहीं है।
देह है, इसके लिए मुक्ति ज़रूरी है ही नहीं, लड़की ज़रूरी है। तो वो लड़की की ओर जाती है। ये जो तुम्हारी देह है, ये बताओ इसके किस हिस्से को मुक्ति चाहिए? नाक को मुक्ति चाहिए? आँख को मुक्ति चाहिए? नहीं। पर तुम्हारी देह में कुछ ख़ास हिस्से हैं जिन्हें लड़की चाहिए। तो लड़की के लिए तो तुम्हारी देह पहले से ही कॉन्फ़िगर्ड है। मुक्ति के लिए थोड़ी ही।
भई खाना न मिले तो देह मुरझा जाती है, मुक्ति न मिले तो कोई फ़र्क पड़ता है? एक-से-एक तंदरुस्त, हट्टे-कट्टे घूम रहे हैं पहलवान।
मुक्ति न मिले तो तुम्हारी इस पूरी व्यवस्था कोई अंतर पड़ता है क्या? हाँ खाना न मिले तो चार दिन में मर जाओगे, पानी न मिले तो दो दिन में मर जाओगे। लड़की न मिले तो बड़ी उदासी छाती है, मुक्ति न मिले तो उदासी छाती है? पैसा न मिले तो भी उदासी छा जाएगी। तो वही ज़रूरी है। वही तो ज़रूरी है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये प्रश्न पूछने में थोड़ी शर्म महसूस हो रही थी।
आचार्य प्रशांत जी: इसमें शर्म की कोई बात ही नहीं है। ये बिलकुल यथार्थ है। तुमने खोलकर बोल दी, सबकी ज़िंदगी का वही खेल है। कोई नहीं बैठा है जिसके साथ इसके अतिरिक्त कुछ और हो रहा हो। और जब ये सब हो रहा हो, तो ये जान लो कि ये सब बदा है।
प्रश्नकर्ता: तो हम बदे की ओर जाएँ, या …