शांत मन को कैसे प्राप्त हों?
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।
जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत मन को प्राप्त होते हैं।
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ५, श्लोक २५
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। श्लोक कहता है, “जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन परमात्मा में स्थिर है, वे ब्रह्मविद पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।”
‘सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाना और सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहना’, इसके बारे में थोड़ा बताएँ।
आचार्य प्रशांत: पाप क्या है? जो नहीं करना चाहिए। अभी कर्मयोग की बात करी। बताओ फ़िर पाप क्या है? जो योग न दिलाए सो पाप।
पाप यही नहीं है कि किसी दूसरे का नुकसान कर दिया, चोरी कर दी इत्यादि-इत्यादि। खूब मेहनत कर रहे हो किसी ऐसी चीज़ में जो न योग दिलाएगी, न मुक्ति, न पूर्णता, वही पाप है, महापाप।
पुण्य भी समझ लो फ़िर क्या है — ज़रा सा कुछ करा नहीं ऐसा जो छोटी कामनाओं की पूर्ति करेगा, वही पाप। छोटी कामना की पूर्ति की ओर तुमने ज़रा-सा भी समय लगा दिया तो वही पाप है।