शहर पर व्यर्थ चाँद

यहाँ विशुद्ध अंधकार भी तो नहीं है।
गौर से देखो तो मालूम पड़ता है
कि- हाँ कुछ चीज़ें हैं, यहाँ आसपास।
दिखाई बस इतना पड़ता है
कि और दिखाई देने की व्यग्रता
या इतना दिखाई पड़ जाने का अवसाद
तुम्हें लिखने पर विवश कर दे।

देखते रहो आसमान की ओर, रात भर,
वो विचित्र चाँद, वो बिखरे तारे,
ये क्या इसलिए निकलते हैं कि
इन्हें देखा जाए?
या इसलिए कि
शायद किसी अकेली जगह पर
इनकी रोशनी गिरे और
रात भर के लिए वो जगह
एक गाँव बन जाए?

शहर पागल है!
पर भगवान ने भी आँखें
सर के ऊपर थोड़ी ही दी हैं
चाँद को फर्क नहीं पड़ता
शहर द्वारा अपमानित होकर भी
वह आता-जाता रहता है, अपने हिसाब से
किसी समझदार युवक की तरह
जो आँखें पढ़ना भी जानता है
और आगे बढ़ना भी।

एक तारा तो चाँद के बिल्कुल नज़दीक है
वे ज़मीन की ओर देख कर
हँस तो नहीं ही रहे होंगे,
मुस्कुराएँगे भी तो किस बात पर,
रोना, व्यथित होना उनके स्वभाव में नहीं है,
पर, कुछ भी बात न करते हों,
ये तो संभव ही…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org