व्यक्तिगत दुख भूलो समष्टिगत दुख मिटाओ
प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। आज काफ़ी बार हमने इसके ऊपर बात करी कि काम करने के पीछे कोई वजह नहीं है, निष्कामकर्म के ऊपर बात की। तो कोई व्यक्ति बाहर से युद्ध को देख रहा होगा जब, तो देखने में तो उसको बहुत कुछ दिखेगा कि योजनाएँ बन रही हैं, लक्ष्य हैं, बीच में भाव भी उठ रहे हैं कि गुस्सा आ रहा है, रथ का पहिया उठा लिया। तो आँखों में हो सकता है कि भाव भी दिख रहे हों। तो इस सबको ये देखें कि वो बस बाहर दिखने के लिए है, अंदर से खाली है; कुछ अपने लिए नहीं चाहिए, बस वो अच्छे के लिए कर रहे हैं — इसको ऐसे देखें?
आचार्य प्रशांत: रणनीति तो कृष्ण भी बनाते हैं। व्यूहरचना-व्यूहखंडन, ये सब तो कृष्ण भी करते हैं; मिलेगा क्या? कुछ नहीं। अब ये बात और ज़्यादा रहस्यमयी हो जाती है। आप वो सबकुछ कर रहे हैं जो कि कोई भोगी करता है, जो सकामी करता है। एक सकामी भी खूब दिमाग लगाता है, योजना बनाता है, व्यूहरचना करता है, सब करता है न? वो ये सबकुछ करता है, आप भी वो सबकुछ कर रहे हैं। आप जान उतनी ही लगा रहे हैं, श्रम उतना ही कर रहे हैं। बल्कि जितना वो सकामी करता है श्रम, आप उससे ज़्यादा कर रहे हैं तो फिर आपकी तो माँग भी, कामना भी उससे अधिक होनी चाहिए न?
पर वो, मान लो, दस इकाई का श्रम लगाता है और उसकी माँग ये है कि मैंने अगर दस इकाई का श्रम करा है तो मुझे इससे कम-से-कम बीस इकाई का फल मिलना चाहिए — यही तो सकामकर्म का गणित होता है न? दस लगाऊँगा, बीस पाऊँगा। तो वहाँ वो बैठा हुआ है जो दस लगा रहा है इसलिए कि उसे बीस चाहिए और आप तो अपनी पूरी ज़िंदगी ही लगाए दे रहे हो। आप दस नहीं लगा रहे, आप पचास…