वैराग्य से जुड़ी ग़लत धारणाएँ

स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात्। साधनं प्रभवेत्पुंसां वैराग्यादि चतुष्टयम्।।

“अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार आचरण कर के भगवान को प्रसन्न करने से मनुष्य वैराग्य, यम, नियम और स्वाध्याय आदि चार साधनाओं को प्राप्त करता है। ‘स्वधर्मपालन’ से ही ये संभव है।”

~अपरोक्षानुभूति (श्लोक ३)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अपरोक्षानुभूति ग्रन्थ के तीसरे श्लोक में वैराग्य के बारे में बताया गया है। मुझे लगता है कि मुझमें वैराग्य है तो, पर बहुत कमज़ोर है, तो मैं तो पहले ही कदम पर कमज़ोर हो गया। कमज़ोर विवेक, कमज़ोर वैराग्य, और बहुत कमज़ोर और उथली जिज्ञासा मेरी। तो जब तक नींव कमज़ोर है, हर जगह कमज़ोरी ही रहेगी। आचार्य जी, आपकी कृपा है कि आस-पड़ोस, दोस्त-मित्रों में अवगुण देखने की आदत अब थोड़ी-सी अपनी तरफ़ भी मुड़ी है, अपनी कालिख भी अब थोड़ी-थोड़ी नज़र आने लगी है। तो मेरा पहला प्रश्न है कि राग, वैराग्य और विचार क्या है?

आचार्य प्रशांत: राग है अपने-आप को इस भाँति अपूर्ण देखना कि कोई दूसरी चीज़ अगर तुमसे जुड़ी तो तुम पूरे हो जाओगे। रागी मन कहता है कि “सामने वाली वस्तु से अगर संबंध बन जाए, नाता जुड़ जाए, तो पूरा हो जाऊँगा, अशांति का खेल ख़त्म हो जाएगा, विश्रांति मिल जाएगी।” राग का ही दूसरा रूप है द्वेष। द्वेष-युक्त मन, द्वेषी मन कहता है कि “इस भाँति अपूर्ण हूँ कि कोई बाहरी चीज़ यदि आ गई तो मेरा कुछ छीन ले जाएगी।“

राग और द्वेष दोनों में ही साझा क्या है? बोलिए?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org