वैराग्य संसार से नहीं, अपनी हरकतों से होता है
इस विस्तृत संसार से कभी सुख नहीं मिल सकता क्योंकि इसमें जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे मरने के लिए ही उत्पन्न होते हैं और जो मरते हैं, वे उत्पन्न होने के लिए ही मरते हैं, उनको कुछ भी सुख नहीं मिलता।
— योगवासिष्ठ सार
प्रश्नकर्ता: ‘उत्पन्न होने के लिए ही मरते हैं’ का क्या आशय है?
आचार्य प्रशांत: मरते नहीं न पूरा, रिचार्जिंग पर जाते हैं। हमारी मौत थोड़े ही होती है, हमारा तो ऐसा होता है कि एक बार को जितनी बैटरी लेकर आए थे, वो चुक गयी, तो फिर थोड़ी देर के लिए मोबाइल बंद हो जाता है और वो लग जाता है रिचार्जिंग में। थोड़ी देर में फिर उसमें प्राण आ जाएँगे। और भीतर की जो पूरी व्यवस्था है, हार्डवेयर-सॉफ्टवेयर, सब वही, ऊपर-ऊपर से कवर (आवरण) बदल जाता है। क्या बोलते हैं उसे… गोरिल्ला ग्लास लगा देते हैं। सॉफ्टवेयर थोड़ा बदल दिया, नई ऐप डाल दी, मूलतः मामला वही है।
प्र२: आचार्य जी, बार-बार मरना-जीना एक ही पंक्ति में कह देते हैं। इसका कोई कारण है?
आचार्य: इसका मतलब यह है कि रोज़ सुबह दोबारा खड़े हो जाते हो, फिर रोज़ रात में गिरते हो और अगले दिन फिर खड़े हो जाते हो — मानते ही नहीं।
वैराग्य का मतलब होता है कि दुःख से बचने के लिए जिसको तलाश रहे हो, जिसको पकड़ रहे हो, जिसके पीछे भाग रहे हो, वो और बड़ा दुःख है। वैराग्य संसार से नहीं होता, वैराग्य अपनी हरकतों से होता है।
(कमरे की दीवार की ओर इशारा करते हुए) इस दीवार से वैराग्य लेकर क्या करोगे? संसार तो यही है न, पत्थर-पानी? पत्थर-पानी से वैराग्य लेकर क्या करोगे? हाँ, पत्थर-पानी के प्रति जो भावना है तुम्हारी, वो दुःख देती है। वो दुःख इसलिए देती है क्योंकि तुम्हें लगता…