वृत्ति नहीं, विवेक

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। एकलव्य की कहानी सुनकर बड़ा दुःख होता है कि द्रोणाचार्य जैसा स्वाभिमानी और श्रेष्ठ गुरु भी अपने स्वार्थ और पक्षपात के चलते श्रद्धावान एकलव्य से अन्याय करता है। एकलव्य इस अन्याय के प्रति आदर प्रकट करते हुए अपना अँगूठा देकर भी गुरु के प्रति श्रद्धा से भरे रहे। मेरी दृष्टि में एकलव्य का आदर ज़्यादा है।

मैं भी इसी तरह की घटनाएँ कॉर्पोरेट जगत में रोज़ देखता हूँ, जहाँ पक्षपात की वजह से प्रतिभाशाली एम्प्लॉइज़ (कर्मचारियों) के विरुद्ध साज़िशें होती हैं। जो प्रतिभाशाली एम्प्लॉई हैं, वो अपने काम को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं, न कि अपने बॉस इत्यादि की चापलूसी को। लेकिन उनके साथ अन्याय के कारण वे धीरे-धीरे पिछड़ जाते हैं और उत्साहहीन हो जाते हैं। ऐसे कइयों के लिए तो मैं मैनेजमेंट (प्रबंधन) से लड़ता भी हूँ और सच्ची बात भी बताता हूँ, तो उत्तर ये मिलता है कि, "आप उनको मैनेज करो।" मैंने कई अच्छे एम्प्लॉइज़ को कंपनी से बाहर निकाले जाते देखा है, और बड़ा दुःख हुआ है। मैंने इसे एक नहीं, कई कम्पनीज़ में होते देखा है।

इस परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए? इस कॉर्पोरेट युद्ध में एम्प्लॉइज़ के लिए लड़ते रहना चाहिए या युद्ध छोड़कर भाग जाना चाहिए? ये अन्याय देखकर आँखें बंद नहीं कर सकता और बर्दाश्त भी नहीं होता। कृपया मार्गदर्शन करें, धन्यवाद!

आचार्य प्रशांत: कृष्ण के जीवन को आप देखें — कभी वो युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं और कभी वो स्वयं ही युद्ध से पीछे हट जाते हैं, कभी वो शांतिदूत होते हैं और कभी वो अर्जुन पर क्रोधित होते हैं कि वो भीष्म के विरुद्ध खुलकर क्यों नहीं लड़ रहा। कोई एक उत्तर नहीं दिया जा सकता। बहुत सारे ऐसे कार्यकर्ता भी होते हैं, जिनके लिए यही उचित है कि वो उस जगह पर न रहें जहाँ पर वो फिलहाल हैं। वो अगर…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org