वीरता साधना और अभ्यास माँगती है
ऐसा नहीं होता हमारे साथ कि हम अन्याय के विरुद्ध पूरा प्रतिरोध करें।
आम आदमी की जिंदगी देखो, उसके साथ कदम-कदम पर अन्याय हो रहा है, तुम उसे पाते हो पूरा प्रतिरोध करते हुए? जब वह कहीं पूरा प्रतिरोध नहीं करता तो एक ही ख़ास मौके पर कैसे पूरा प्रतिरोध कर देगा, क्यों कल्पना कर रही हो?
दस जगह आदमी को जूते पड़ रहे हैं और वह खा रहा है, विरोध नहीं कर रहा, सर झुकाए दे रहा है, तुम्हें क्या लग रहा है, एक ख़ास मौके पर ही वह एकदम सूरमा बन जाएगा? ऐसा नहीं होता है।
जिसने आदत बना ली कायरता की, उसके लिए एक विशिष्ट मौके पर कायरता पीछे छोड़ना मुश्किल हो जाता है। वह आदत मत बनाओ।
वीरता भी यकायक नहीं आती; वीरता भी अभ्यास मांगती है।
आपने अभी ‘केसरी’ फिल्म की बात कही। मैंने कहा कि इक्कीस नौजवान सिपाही यूँ हीं नहीं भिड़ गए होंगे दस हज़ार अफ़गानों से; कुछ-न-कुछ उनमें विशिष्ट था, कुछ-न-कुछ उन्होंने साधा था, कुछ उनका अभ्यास था, कुछ उनकी तैयारी थी। फ़िल्मकार को वह तैयारी दिखानी चाहिए थी, नहीं तो आम जनता को संदेश ये गया है कि — तुम कितने भी औसत इंसान हो, तुम कितने भी साधारण बंदे हो, तुम यूँहीं एक दिन, अचानक योद्धा बन जाओगे — ऐसा होता नहीं है।
वह इक्कीस लोग बहुत ख़ास रहे होंगे और इक्कीस-के-इक्कीस नहीं भी तो उनमें से कम-से-कम आठ-दस तो अति विशिष्ट रहे होंगे — या तो उनका निशाना बहुत अचूक रहा होगा या तो उनकी धर्मनिष्ठा बहुत गहरी रही होगी, या उनका बचपन किसी ख़ास तरीके से बीता होगा। उन इक्कीस लोगों में…