विश्वास नहीं, विवेक

प्रश्नकर्ता: सर, हमारे अभिभावक हम पर काफी विश्वास करते हैं। जब हम उनकी आशाएँ पूरी नहीं कर पाते तो तकलीफ होती है, और फिर सारा ध्यान उस तरफ चला जाता है।

आचार्य प्रशांत: क्यों विश्वास कर रही हो कि मैं उचित जवाब दूँगा? फिर गलती कर रही हो। ये विश्वास भी क्यों हो? कि उत्तर मिलेगा ही और मिलेगा तो सही मिलेगा? ये जो ‘विश्वास’ शब्द है, इसका अर्थ है मन की एक धारणा, मन की एक स्थिति। मन की एक स्थिति, जिसमें मन कहता है कि कुछ ऐसा है। ये तुम्हें परिभाषा दे रहा हूँ विश्वास की। इसको पकड़ लो ठीक से, चाहो तो लिख ही लो। मन की एक स्थिति, जिसमें मन कहता है, ‘ये ऐसा है’, ये विश्वास है। ’ये ऐसा है’, अब इसमें ‘ये’ की जगह भी कुछ भी भर सकते हो और ‘ऐसा’ की जगह भी कुछ भी भर सकते हो। भरो! ‘ये’ की जगह एक नाम भर दो। क्या नाम भर दिया? तुमने नाम भर दिया। मान लो, ‘विशाल’ (एक काल्पनिक नाम लेते हुए)। अब ‘ऐसा है’ की जगह तुमने भर दिया ‘महान’। ये सब विश्वास है।विश्वास मन की एक स्थिति जिसमें मन कहता है कि ‘ये ऐसा है’। ये बात स्पष्ट हो रही है? कुछ ऐसा है।

(सभी से पूछते हुए) कौन दोहराएगा कि विश्वास क्या है?

विश्वास क्या है? ये ऐसा है। अब ‘ये’ कुछ भी हो सकता है, एक खाली स्थान की तरह और ‘ऐसा है’ भी। तो विश्वास कहता है क़ि ये ऐसा है जिसमें ‘ये’ और ‘ऐसा है’ दोनों कुछ भी हो सकते हैं। ये स्थिति दो तरीकों से आ सकती है। पहला तरीका है मानने का और दूसरा तरीका है जानने का। विश्वास में भी तुम कहते हो कि ‘ऐसा है’ क्योंकि तुमने जाना नहीं है। तुमने सिर्फ किसी से सुन लिया है और सुनी- सुनाई बात के आधार पर तुमने कहना…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org