विनाश की ओर बढ़ती मानवता

कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि आदमी की हरकतों से पूरे ग्रह के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया हो। आज तुम्हारे पास इतने आणविक अस्त्र हैं कि तुम इस धरती को दस हज़ार बार मिटा सकते हो। अपने ही घर को दस हज़ार बार मिटाने का आयोजन जो लोग कर लें क्या वो पागल नहीं हैं?

कोई समय ऐसा नहीं रहा जब धरती के सामने विनाश की समय सीमा रख दी गई हो। तुम्हारे सामने चंद दशकों का समय बचा है बस। औसत तापमान करीब-करीब दो डीग्री पहले ही बढ़ चुका है। ये काम पागल नहीं करेगा तो कौन करेगा कि अपने ही घर में आग लगा ले। तुम्हें पता है कि आज हज़ारों प्रजातियाँ पक्षियों की, पौधों की, पशुओं की विलुप्त हो चुकी है? और तेज़ी से विलुप्त होती ही जा रही हैं।

कोई ऐसा युग था जब आदमी इतने गहरे संकट में था जितने गहरे संकट में आज है?

पृथ्वी पर तो जीवन दोबारा वापस आ जाएगा, इंसान मिट जाएगा जैसे एक समय में डायनासोर मिटे थे।

कितने ही द्वीप हैं जो पहले ही डूब चुके हैं। ग्लोबल वार्मिंग तुम्हें खत्म करने आ नहीं रही है, आ चुकी है। ये दिया है तुम्हें तुम्हारी तरक्की ने। और ऐसा भी नहीं है कि उससे निकलने का तुम्हारे पास कोई तरीका है।

मन अगर भटका हुआ है तो वो अणु बम ही बनाएगा । वो परमाणु ऊर्जा का उपयोग किसी शांतिपूर्ण उद्देश्य के लिए कर ही नहीं सकता। मन जब परमात्मा में स्थित होता है मात्र तब शांत हो सकता है, मन परमात्मा में स्थित नहीं है तो तुम किसी भी शक्ति का कोई शांतिपूर्ण उपयोग कैसे करोगे? तुम्हारे हाथ में जो कुछ भी आएगा, उसी का प्रयोग तुम अपने विनाश के लिए करोगे।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org