विद्या की गरिमा और सम्मान
बसंत पंचमी, विद्या की देवी, सरस्वती को समर्पित है। प्राचीन ज्ञान के अनुसार जीवन शिक्षा दो प्रकार की होती है — विद्या और अविद्या। आइए दोनों का अन्वेषण करें:
विद्या और अविद्या
अन्यदेवाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया ।इति शुश्रुम धीराणां येनस्तद्विचचक्षिरे ॥
विद्या का फल अन्य है तथा अविद्या का फल अन्य है ।ऐसा हमने उन धीर पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमें समझाया था ।।
(ईशावास्य उपनिषद, श्लोक १०)
विज्ञान, कला, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि के ज्ञान को, विश्वविद्यालय के सभी विषयों को, अविद्या कहा जाता है। संसार के अंतर्गत किसी भी विषय का ज्ञान अविद्या है। जब हम दुनिया की ओर देखते हैं, इंद्रियों और मन का उपयोग करके जानकारी इकट्ठा करते हैं, और ज्ञान का निर्माण करते हैं, वह है अविद्या।
अविद्या को अपराविद्या, सांसारिक ज्ञान या निम्नविद्या भी कहा जाता है।
जब हम स्वयं को देखते हैं, तो मन और अहंता की संपूर्ण-संरचना की, और व्यक्तित्व की पूरी व्यवस्था की झलक पाते हैं। यह आत्म-अहंता ही दुनिया की दृष्टा और पर्यवेक्षक है। अपने प्रति इस ज्ञान को, स्वयं की इस धारणा के जानने को, विद्या कहते हैं।
विद्या को पराविद्या या उच्चविद्या भी कहा जाता है।
विद्या मनोविज्ञान से कैसे अलग है? विद्या केवल मन के अध्ययन का क्षेत्र नहीं है — बल्कि आध्यात्मिक मुक्ति के लिए मन की रहस्यमय लालसा से निकटता, और समाधान भी है।