विदेशी कंपनियाँ और बाज़ारवाद: पतन भाषा, संस्कृति व धर्म का

किसी भी चीज़ के बिकने के लिए दो-तीन शर्तें हैं। एक तो ये कि वो चीज़ निर्मित, पैदा करने वाला, उत्पादन करने वाला कोई होना चाहिए। ये तो पहली बात हुई। दूसरी बात उस चीज़ के बिकने के लिए कोई बाज़ार, मार्केट होना चाहिए, और तीसरी चीज़ जो कि तुम कहोगे ये तो बहुत सहज है, स्पष्ट है, पर उसकी बात करना बहुत ज़रूरी है। तुम्हारे सवाल का जवाब उस तीसरी चीज़ में ही छुपा हुआ है। तीसरी चीज़ है कि उसका खरीदार होना चाहिए। वस्तु होनी चाहिए, बाज़ार होना चाहिए और खरीदार होना चाहिए। तो अगर मुझे कुछ बेचना है तो मुझे सिर्फ चीज़ नहीं तैयार करनी है, मुझे उस चीज़ का खरीदार भी तैयार करना है। खरीदार नहीं है तो चीज़ बिक नहीं सकती।

अब ये बेचने और खरीदने की बात क्या है, समझना। भली-भाँति जानते हो तुम कि ज़्यादातर चीज़ें जो खरीदी-बेची जाती हैं, वो किसी मूलभूत आवश्यकता के कारण नहीं खरीदी जातीं। वो इसलिए खरीदी जाती हैं क्योंकि चलन है या ये चीज़ अब प्रचलन में आ गयी है, संस्कृति में आ गयी है कि फलानी वस्तु तो आपके पास या आपके घर में होनी ही चाहिए। उदाहरण के लिए, भारतीय जब पहली दफे अमेरिका जाते हैं तो उनमें से बहुतों का ये कहना होता है, “हम तो हैरान हैं कि अमेरिका के लोग कितनी फ़िज़ूल की चीज़ें खरीदते हैं और कितनी चीज़ें बर्बाद करते हैं!” अमेरिका के लोगों से पूछो तो कहेंगे, “नहीं, फ़िज़ूल में तो हम कुछ भी नहीं खरीदते, ना ही कुछ बर्बाद कर रहे हैं। ये जो हम खरीद रहे हैं, ये तो हमारी सच्ची ज़रूरतें हैं; जेन्युइन नीड्स हैं।” वो एक भारतीय को साफ दिखाई पड़ता है कि भाई, ये ज़रूरतें नहीं हैं, ये तो अय्याशी कर रहे हो तुम।…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org