वासना निर्बल और निराधार क्यों?

तुम मुझे रोज़मर्रा की निर्बल और निराधार वासना से बचते रहने की शक्ति देते रहो।

~ रबीन्द्रनाथ टैगोर

आचार्य प्रशांत: वासना को रबीन्द्रनाथ निर्बल इसीलिए कह रहे हैं क्योंकि वासना में बल होता तो वासना उसको पा ही लेती ना जिसके लिए वो उठती है।

हर इच्छा, हर कामना, हर वासना चाहती क्या है?
शान्ति।

पर वासना को कभी शान्ति मिलती है? मिली? तो इसीलिए उसे कह रहे हैं, “निर्बल।”

और क्यों कह रहे हैं, “निराधार?” क्योंकि जिसका आधार होता है, आधार माने बुनियाद, जिसका आधार होता है वो अडिग रहता है, वासना को कभी अडिग रहते देखा है? इच्छा कभी अडिग रहते देखी है? क्या होता है इच्छा को? झट उठी, झट गिरी। कभी इसीलिए गिरी कि पूरी हो गयी। और कभी इसीलिए गिरी कि पूरी होने की आस नहीं रही। है कोई इच्छा जो शाश्वत बनी रह जाती हो? जो इच्छा शाश्वत बनी रह जाए, उसे फिर इच्छा नहीं मुमुक्षा कहते हैं। वही हर जीव की सनातन इच्छा है — मुक्ति, मुमुक्षा। पर हम उस इच्छा को दरकिनार कर, छोटी, टुच्ची इच्छाओं में लिप्त हो जाते हैं। दो रुपया, चार रुपया, बीस हज़ार, पच्चीस हज़ार।

भक्ति सबल होती है, क्यों? क्योंकि वो उसको पा लेती है जो उसका ध्येय होता है। वासना निर्बल होती है, क्यों? क्योंकि वो उसको नहीं पा पाती जो उसका ध्येय होता है। भक्ति सबल है, ज्ञान सबल है, ध्यान सबल है, समर्पण सबल है, तपस्चर्या सबल है। ये पा लेते हैं। कम से कम, पा सकते हैं। वासना की तो प्राप्ति की सम्भावना ही शून्य है, वो न पाती है…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org