लॉकडाउन खत्म हो, ‘नॉर्मल लाइफ़’ वापस मिले?

इसी कोशिश में हम सभी लगे हैं कि जल्दी से जल्दी सब कुछ सामान्य हो जाए। तुम्हारी सामान्य ज़िंदगी इतनी ही अच्छी थी, इतनी ही सही थी, तो ये महामारी कहाँ से आ गई? जिस ज़िंदगी से ये महामारी आई है, तुम चाहते हो कि तुम उसी तरह की ज़िंदगी में दोबारा चले जाओ, तुम सोच भी नहीं रहे अगर उसमें दोबारा जाओगे, तो दोबारा इसी या इससे भी कही ज़्यादा भयानक महामारी को पाओगे। वो किसी भी तरह की महामारी हो सकती है, ज़रूरी नहीं कि बाहरी हो, आंतरिक भी हो सकती है।

किसी भी चीज़ का आख़िरी उपभोक्ता कौन है? दुनिया में जितने भी कुकर्म हो रहे हैं, उन सब कुकर्मों का आख़िरी उपभोक्ता आम आदमी है, आम आदमी न होता उपभोग करने के लिए, तो क्या उनमें से एक भी काम हो रहा होता? आपके या मेरे हाथ में ये मोबाइल फ़ोन न हो तो क्या अफ्रीका के जंगल काटे जाएँगे?

मेरी ज़्यादा बड़ी चिंता ये है कि जब ये महामारी किसी तरह टलेगी, हम उसके बाद दोबारा उन्हीं तौर-तरीकों पर वापस आना चाहते हैं जिन्होंने इस महामारी का निर्माण करा।

हम जैसे जी रहे हैं, वो तरीका जीवन का नहीं है, हम बहुत तेज़ी से महाविनाश की ओर बढ़ रहे हैं।

जो जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जिसमें तापमान बढ़ रहा है, ये तो कोरोना जैसी किसी भी महामारी से सौ गुना ज़्यादा प्रचंड आघात करेगा हम पर। तब हम कहाँ जाकर छुपेंगे, कौन-सा लॉकडाउन हमें जलवायु परिवर्तन से बचा लेगा?

अपने दिल पर हाथ रख कर पूछो, क्या वाकई इस लॉकडाउन की अवधि ने तुम्हें ये नहीं सिखाया कि ज़्यादातर तुम्हारा भोग अनावश्यक है। पिछले दो महीनों में देख नहीं रहे हो कि कितने कम का इस्तेमाल करके भी आदमी मज़े में जी सकता है, भोग कर जैसे जीता था, उससे बेहतर जी सकता है बिना भोगे।

और ये तो कह ही मत देना कि हमें सामान्य जीवन इसलिए माँग रहे हैं क्योंकि हमें ग़रीबों की बहुत फ़िक्र है, ग़रीबों को ग़रीब बनाया किसने? उसी पुराने तरीके के अर्थव्यवस्था ने तो? नहीं तो आदमी और आदमी में इतना अंतर नहीं होता कि एक अरबपति हो और दूसरे के पास रोटी भी न हो। उद्योगपतियों के सामान बिकने बंद हो गए हैं इसलिए वो जल्दी से जल्दी चाहते हैं कि तुम घरों से बाहर निकलो, शॉपिंग करो, भले ही तुम उस शॉपिंग में संक्रमित हो कर के मर जाओ लेकिन उनका सामान तो बिका।

ईश्वर करे कि कम से कम नुकसान हो, ईश्वर करे कि हमें घरों से जल्दी से जल्दी बाहर निकलने का मौका मिले, पर हम बाहर इसलिए न निकले कि हम दोबारा वैसी ही ज़िंदगी जिए जैसे पहले जी रहे थे।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org