लाचार नहीं हो तुम, विद्रोह करो!

आपका जन्म किसी एक प्रकार से जीवन बिताने के लिए तो हुआ नहीं है। अनंत संभावनाएँ थीं, और समय तुम्हारे पास बहुत थोड़ा। उन सब अनंत संभावनाओं को तुम जी नहीं सकते। बात ठीक है बिलकुल। लेकिन कम-से-कम उन अनंत संभावनाओं में से किसी एक संभावना से बँधकर तो मत रह जाओ। किसी एक संभावना के गुलाम बन कर तो मत रह जाओ। बीच-बीच में विद्रोह करते रहो ताकि तुम्हें याद रहे कि जीवन कैसा भी बिता सकते हो। चुनाव का हक है। विकल्प मौजूद हैं।

हाँ, तुम स्वेच्छा से अगर चुन रहे हो कि बाकी विकल्पों का प्रयोग नहीं करना, तो अलग बात है। लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि बाकी विकल्प भी हैं। कोई आवश्यक नहीं है कि तुम वैसे ही कपड़े पहनो जैसे तुम पहनते हो। ये भी आवश्यक नहीं है कि तुम्हारा नाम वही हो जो है। तुम वैसा ही खाओ, वैसा ही पियो वहीं रहो, जैसा कि अभी हो रहा है। कुछ भी बदल सकता था। सब कुछ अलग हो सकता था, दूसरा हो सकता था। यह बीच-बीच में अपने आपको याद दिलाते रहना चाहिए। कपड़े बदला करो, भाषा बदला करो, आदतें बदला करो, दिनचर्या बदला करो। ज़रा कुछ बीच-बीच में तोड़ दिया करो, बिलकुल कुछ नया कर दिया करो। उससे आदमी को अपने होने का सबूत मिलता रहता है। आत्मबल गहराता है।

यह तो बड़े संयोग की बात है न कि तुम्हारा वो नाम, परिचय, आदतें इत्यादि हैं जो अभी हैं। कुछ भी और हो सकता था, बिलकुल हो सकता है। तो यह भूल क्यों जाते हो कि हजार रास्ते उपलब्ध थे और आज भी उपलब्ध हैं?

कदम-कदम पर चौराहे हैं, हम कहीं को भी मुड़ सकते हैं, आज भी। और अगर हमने कोई एक रास्ता पकड़ा है तो फिर वो हमारा सार्वभौम और स्वतंत्र…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org