लाचार नहीं हो तुम, विद्रोह करो!

लाचार नहीं हो तुम, विद्रोह करो!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने आखिरी सत्र में चुनाव की बात की। चुनाव की क्षमता की बात की थी। हमने समझा है कि आमतौर पर तो हम संस्कारित हैं, बचपन से लेकर अभी तक| तो चुनाव कैसे हो पाता है सही में, जब सब कुछ ही, हमारी साँस, हमारी आँखें…

आचार्य प्रशांत: पूरी तरह नहीं हैं संस्कारित न। पूरी तरह संस्कारित होते, तो कैसे कह पाते कि संस्कारित हो? अगर पूरी तरह तुम संस्कार का एक पुतला ही होते, एक पैकेट होते, तो तुम्हें कैसे पता चलता कि तुम संस्कारित हो? यानी कोई तो है न, जो संस्कारों से ज़रा अलग खड़ा हो करके, संस्कारों को देख पा रहा है? इसलिए चुनाव संभव हो पाता है। संस्कारों का बहुत ज़ोर है। लेकिन हमारे लिए खुशखबरी यह है कि हमारे पास कुछ और भी है । विकल्प उपस्थित है, हम चुनेंगे या नहीं चुनेंगे, ये हमारे ऊपर है।

कर सकते हैं। अक्सर करते नहीं। ये अलग बात है।

पर ऐसा भी नहीं है कि कोई नहीं करता। और ऐसा भी नहीं है कि हम ही कभी नहीं करते। बहुत हुए हैं जिन्होंने खूब अपने चुनाव के विकल्प का, अपनी चुनाव की शक्ति का सुंदर इस्तेमाल किया है। निरंतर इस्तेमाल किया है। और तुम्हारे जीवन में भी तुमने कई दफे सही चुनाव किए होंगे। तो प्रमाण भी उपलब्ध है। बस यह है कि सही चुनाव के अवसर बड़े काम आते हैं।

आमतौर पर हम एक संस्कारित मशीन की भाँति, वही पुराने बहाव में बहे चले जाते हैं । हमें यह लगता ही नहीं कि, “इस वक्त पर, अभी मेरे माध्यम से जो हो रहा है, उसकी जगह कुछ और भी हो सकता था।” रोज़मर्रा के छोटे-छोटे पलों को ही देखो। छोटी घटनाओं को ही देखो, तो कितना कुछ है, जो स्वतः हो रहा है और जो स्वतः हो रहा है, वह आत्मिक नहीं है, यह तुम्हारा स्वभाव नहीं है, यह संस्कार है। और, चूँकि यह रोज़ होता है, तो यह निर्बाध होने लग गया है। हम इस पर प्रश्न ही नहीं उठाते, जिज्ञासा ही नहीं करते, कि क्या इसका होना ज़रूरी है? और जब तुम किसी चीज़ को बाधा ही नहीं दोगे, किसी चीज़ के सामने जिज्ञासा खड़ी ही नहीं करोगे, तो फिर वो चीज़ सत्य का स्थान ले लेती है।

जिस चीज़ पर कभी सवाल नहीं उठाया जा सके, उसको तो सत्य कहते हैं न? सत्य अटल है, उस पर सवाल उठा कर कोई फायदा नहीं। और सत्य अनंत है, उस पर सवाल उठा कर कोई फायदा नहीं। तुम भी अगर अपनी वृत्तियों और संस्कारों के बहाव पर कभी सवाल ही नहीं उठा रहे, उनको कभी तोड़ ही नहीं रहे, कभी विरोध ही नहीं कर रहे, तो तुमने उन्हें क्या स्थान दे दिया? सत्य का। यह गड़बड़ हो गई। वो सत्य नहीं हैं, उन्हें तोड़ा जा सकता है।

छोटी चीज़ों में ही तोड़ना शुरू करो। जहाँ कहीं भी पाओ कि व्यवहार यंत्रवत है, मशीनी है, वहाँ देखो कि तोड़ सकते हो, या नहीं। तोड़ने का भी अपना एक लुत्फ़ है। सामने खाना आता है, और सदा से…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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