लड़की होने का तनाव और बंदिशें

लड़का-लड़की भूलो, ये तुम्हारी पहचान नहीं है। लड़की बाद में हो, पहले तुम ‘बोध’ हो, ‘समझदार’ हो। कह सकती हो कि, “मैं समझदार पहले हूँ, लड़की बाद में हूँ तो जानती हूँ कि क्या उचित है और क्या अनुचित है। कोई किसी पर हिंसा करे, और जिसपर हिंसा की गई है फिर उसी का दोष निकाला जाए, तो मैं अच्छे से जानती हूँ कि ये बात गलत है और बेकार में मुझे बताइए मत, नहीं तो आप ही मेरी नज़रों से गिर जाएँगे। अगर आप ये व्यर्थ बातें मुझे बताएँगे तो आप ही मेरी नज़रों से गिर जाएँगे, इसलिए इस तरह की बातें आप करिए भी मत। लड़की हूँ लेकिन उतनी ही ‘चेतना’ मुझ में है जितनी किसी और में होती है, हो सकता है उनसे ज़्यादा भी हो। लड़की हूँ पर उतनी ही ‘बुद्धि,’ उतना ही ‘बोध,’ उतनी ही ‘समझदारी’ मुझ में है, जितनी किसी और में होती है, हो सकता है उनसे ज़्यादा भी हो। तो जितना मुक्त होने का उनका अधिकार है, उतना ही मेरा भी है। मुक्ति जैसे उनका स्वभाव है, वैसे ही मेरा भी है। मुझ पर व्यर्थ बंदिशें मत लगाइए।”

देखो, ग़लत धारणाओं, संस्कारों, परवरिश के कारण मन बहुत हिंसक हो जाता है। भ्रम अनिवार्यतः हिंसा बनता है। हिंसा और कहीं से नहीं आती, भ्रमों से आती है। यह जो दुनिया है ये बड़े भ्रमों में जीती है, भ्रम में। नतीजा है — हिंसा। हिंसा हमेशा शिकार खोजती है। सबको शिकार चाहिए; पुरुषों को भी शिकार चाहिए, स्त्रियों को भी शिकार चाहिए। हर आदमी शिकार की तलाश में है, क्योंकि हर आदमी भ्रमित है, इसलिए हिंसक है। पुरुष के लिए स्त्री कई मौकों पर एक शिकार के अलावा और कुछ नहीं होती। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि स्त्रियाँ हिंसक नहीं होती हैं, वो भी होती हैं।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org