लड़की या स्त्री होने को अपनी पहचान मत बना लेना
प्रश्नकर्ता: हम जैसे अपने अभिभावकों के लिये एक बोझ की तरह होते हैं। जैसे कि आज मैं यहाँ (शिविर)पर हूँ, तो मेरे घर पर भी बहुत कुछ चल रहा है, कि क्यों मैं चली आयी, तो फिर यह एहसास करवाया जाता है कि तुम्हारी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं और घर पर भी तुमको समझना चाहिए कि तुम्हारी माँ तुम्हें इन सब के लिये नहीं जाने दे सकती; मेरे पिताजी नहीं हैं, तो तुमको थोड़े कायदे से रहना चाहिए, सम्भलकर रहना चाहिए, क्योंकि समाज ऐसा है और तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियों को देखना चाहिए।
लेकिन मुझे कुछ चीज़े अनावश्यक लगती हैं और मैं नहीं उनके अनुसार चलना चाहती। लेकिन फिर कहीं न कहीं मैं अपराध-भाव से भर जाती हूँ, कि मेरी वजह से परेशान हो रहे सब लोग। तो मैं अगर ये चीज़े न करूँ तो उनकी परेशानियाँ नहीं होगीं, तो इन चीज़ो को लेकर मैं भी परेशान हो जाती हूँ, तो मतलब, कैसे संभालू इस स्थिति को?
और एक सवाल यह है मेरा कि जैसे बहुत ज़्यादा मेरे अन्दर द्वंद चलते रहते हैं, मतलब मानसिक रूप से काफ़ी द्वंद चलते हैं क्योंकि मैं अपने आप को बहुत बंधा हुआ महसूस करती हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि मैं जो करना चाहती हूँ, जो ठीक भी मुझे लगता है कि वैसे नहीं ऐसे, इस तरह से करना चाहिए, तो मैं वो नहीं कर पाती हूँ। इसलिए वो करने वाला और जो मैं नहीं कर पाती, उन दोंनों की वज़ह से बहुत ज़्यादा द्वंदों से घिरी रहती हूँ और ऐसा लगता है कि मैं अपनी ज़िदगी जी नहीं पा रही हूँ, कृपया राह दिखायें।
आचार्य प्रशांत: तुम्हारे जो आंतरिक भ्रम हैं और द्वंद हैं, मूलतः यहाँ से निकल रहे हैं कि…