रोया करो

आचार्य प्रशांत: उत्सव (सेलीब्रेशन) का मतलब ही होता है कि भीतर का ग़ुबार हट जाए, साफ़ हो जाए। शरीर की मैल नहाते वक़्त ही तो पता चलती है ना? ऐसे पता चलती है? जब नहाने जाते हो तभी पता चलता है ना, अच्छा, कुछ है। उत्सव अपने लिए खाली जगह बनाना चाहता है। बहुत व्यापक होता है वो, साफ़ होता है। साफ़ और व्यापक, जैसे आसमान। बड़ा और साफ़। तो वो अपने लिए जगह बनाना चाहता है। उसे किसी भी तरह का अतिक्रमण, एन्क्रोचमेंट पसंद नहीं होता। और कौन सी चीज़ भरी होती है भीतर? एनक्रोच कर रही होती है खाली स्थान को? पुरानी यादें, भावनायें, वो सब कुछ जो अभी पूरा नहीं हुआ है और पूरा होना चाहता है। भीतर बहुत कुछ होता है जो अधूरा होता है। जैसे उसमें अभी कुछ किया जाना बाकी हो, जैसे कि उसका चक्र अभी अधूरा सा हो। वही सब भीतर ऐसे पकड़ के बैठा रहता है।

फिर यकायक, संयोगवश, या अनुग्रहवश, जीवन में उत्सव के पल आ जाते हैं। अब उत्सव आ गया है और भीतर कौन बैठा है? और वो ऐसे केंकड़े की तरह पकड़ कर बैठा है भीतर। जैसे घर में दावत दी हो, उत्सव हो, और नाचते गाते हँसते खेलते कूदते, मेहमान आ गए हों। और भीतर क्या पड़ा हुआ है? पुराना कचरा। और ये मेहमान अब किस मन में है? किस रो में है? कि हमें तो मस्ती करनी है, और साफ़ मस्ती। बेहोशी वाली नहीं। अब ये आ ही गए कि यहीं हमें तो अब दावत करनी है, और यहाँ कचरा पड़ा है। तो तुरंत उस कचरे का क्या करेंगे? और कहेंगे, “जल्दी, जल्दी, जल्दी।” उनके पास बड़ी ऊर्जा है, उनके पास शक्ति का अतिरेग है। वो जल्दी से भीतर जो कुछ पड़ा है उसे क्या करेंगे? निकाल बाहर करेंगे। भीतर के केंकड़े से आज़ादी मिलती है उत्सव के क्षणों में। इसीलिए आदमी दो मौकों पर अश्रुपूरित हो जाता है। कौन…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org