रोज़मर्रा का गुस्सा और डर

रोज़मर्रा का गुस्सा और डर

प्रश्नकर्ता: मुझे ये जानना है कि जैसे कोई भी परिस्थिति आ जाती है जैसे कि मान लीजिए कि कोई गाड़ी वाला आ रहा है और मैं उस गाड़ी वाले के सामने आ गया और मैं एकदम बीच में रुका हुआ हूँ। और वो गुस्से में मुझे देख रहा है, मैंने भी उसे इस तरीके से देखा है। मैं जानता हूँ अगर मैंने लगातार उसे देखना चालू रखा तो झगड़ा शुरू हो जाएगा, मतलब झगड़ा हो सकता है। और मैं अगर नजरें थामकर साइड में चला जाता हूँ तो नहीं होगा। मतलब मैंने उस परिस्थिति को टाल दिया पर वो जो भावना मेरे अंदर उठी है गुस्से की या डर की, उससे कैसे डील करा जाए? या मैं खुद को बचाने की प्रवृत्ति से कैसे बचूँ?

आचार्य प्रशांत: उसके लिए तुम्हें ये देखना होगा कि वो जो भीतर से भावना उठती है कि, “मेरा अपमान हो रहा है, और मैं बड़ा मर्द हूँ, मैं पीछे कैसे हट जाऊँ!” वो जो सेंस (भावना) है वो तुम नहीं हो, वो तुम्हारे भीतर बैठी आदिम प्रकृति है। किसी जानवर को भी तुम बस यूँ ही देखो दूर से, उसके शरीर का कोई भी हिस्सा, तो उसकी एक तरह की प्रतिक्रिया होती है। और थोड़ा सा आज़मा कर के देख लेना, किसी बंदर की या किसी कुत्ते की बिलकुल आँख में आँख डालकर देखना, अलग प्रतिक्रिया आएगी। ये हम थोड़े ही कर रहे हैं, ये तो हमारे भीतर जो जंगल बैठा हुआ है बहुत पुराना, वो कर रहा है। समझ रहे हैं बात को?

तो ये जो आँख में आँख डालना होता है ये हमारे भीतर कुछ ऐसा कर देता है जो पूरे तरीके से रासायनिक है, बायोकेमिकल है, और उस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं है। वो आपकी मर्ज़ी से नहीं होता है, वो बस हो जाता है; आपने चाहा नहीं है वो हो गया। जैसे कोई भी केमिकल रिएक्शन (रासायनिक अभिक्रिया) होता है, वो आपके चाहने से थोड़ी ही होता है। उसमें कहीं भी चेतना, कॉन्शियसनेस थोड़े ही शामिल होती है।

सोडियम को पानी में डाल दो, और कमरे में तुम बुद्ध का करुणा का संदेश बिलकुल बजाए रहो, भक्ति संगीत चल रहा है, विस्फोट नहीं होगा क्या? क्योंकि वहाँ जो मामला है वो बिलकुल रासायनिक है। इसी तरीके से हमारे भीतर भी जिसको हम ‘मैं’ कहते हैं न, ‘मैं’, ‘सेल्फ’, वो अधिकांशतः पूरे तरीके से रासायनिक है। ठीक है?

ये बात जिसने समझ ली वो इस झूठे ‘मैं’ से, ‘सेल्फ*’ से, नाता रखना ज़रा कम कर देता है। वो कहता है, “ये मैं थोड़ी कर रहा हूँ, ये काम तो भीतर की *केमिस्ट्री कर रही है। मैं केमिस्ट्री थोड़ी ही हूँ।”

मैं सुबह उठना चाहता हूँ, शरीर सोना चाहता है। हम अलग-अलग हैं भाई! शरीर के अपने इरादे हैं, उसके इरादे बहुत पुराने हैं। वो अभी भी जंगल में ही है। उसको ये पता है; खाओ, पियो, मस्त सोओ। शरीर थोड़े ही कह रहा है कि मुझे आई.आई.टी आना है। शरीर थोड़े ही कह रहा है कि मुझे सीखना है, ज्ञान होना चाहिए, तरक्की करनी है, दुनिया को बेहतर…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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