रिहाई ही है आपकी असली भलाई

प्रश्नकर्ता (प्र): आचार्य जी, जैसे हमारी संस्कृति है, सनातन धर्म है वो कहता है कि सबसे पहले जीवन में धर्म होना चाहिए और जब धर्म होगा तो उसी से फिर अर्थ, काम और मोक्ष भी होगा। जैसे मेरे व्यक्तिगत जीवन में सत्य बोलना धर्म है, तो सामान्य और व्यापक रूप से यह धर्म क्या है, जिसे जीवन में लाना ज़रूरी है?

आचार्य प्रशांत: धर्म धारण किया जाता है। धर्म क्या है? एक धारण करने वाली चीज़, एक अपनाने वाली चीज़। क्यों अपनायी जाती है? ताकि आप उन धारणाओं से मुक्त हो सकें जो आपने व्यर्थ पहन रखी है। जो व्यर्थ पहन रखी धारणाएँ हैं, जो आपको मुक्त नहीं होने दे रहीं, उनको तो हम एक ही नाम बोल सकते हैं, क्या? बेड़ियाँ। कोई ऐसी चीज़ आपने पहन रखी है जो आपकी मुक्ति में बाधा है, उसको और क्या नाम दें? बेड़ी है वो। कुछ पहन रखा है जो आपको मुक्ति नहीं लेने दे रहा, उसको क्या नाम दूँ? बेड़ियाँ। तो बेड़ियाँ हम क्या करते हैं? धारण। बेड़ियाँ हमने क्या कर रखी है? धारण।

हमने माने किसने? चेतना ने। उसी चेतना को आप मन का भी नाम दे सकते हो मोटे तौर पर। हमने क्या धारण कर रखी है? बेड़ियाँ। बेड़ियाँ हमने धारण कर रखी है बेहोशी में। हमें पता भी नहीं हम क्या-क्या पकड़े बैठे हैं। कहाँ पकड़े बैठे हैं? हाथ से पकड़े बैठे हैं? कहाँ पकड़ रखा है?

प्रश्नकर्ता: मन में।

आचार्य: तो हम ये फ़िजूल की चीज़ें सब मन में पकड़े बैठे हैं। पकड़ने को ही कहते हैं धारण करना। तो धर्म भी धारण करने का ही नाम है, कोई ऐसी चीज़ जो उन धरणाओं को काट दे जो तुमने पहले से पकड़ रखी है। तो धर्म अपने मूल में नकारात्मक है क्योंकि धर्म का काम उन चीजों से आपको मुक्त करना है, छुटकारा दिलवाना है जो आपने पकड़ रखी है या जिन्होंने आपको पकड़ रखा है, जैसे भी बोल लो। समझ में आ रही है बात? ये धर्म है।

अभी तक संस्कृति पर हम आए नहीं हैं। संस्कृति क्या है? हम जिन धारणाओं की बात कर रहे हैं उन्हीं के लिए दूसरा नाम है संस्कार। कुछ संस्कार प्रकट होते हैं, कुछ संस्कार प्रच्छन्न। संस्कार माने? जिसको आधुनिक भाषा में कंडीशनिंग कहते हैं। कुछ प्रकट होते हैं और कुछ अप्रकट, प्रच्छन्न। जो प्रकट होते हैं उनको हम कह देते हैं सामाजिक संस्कार हैं। जो छुपे हुए संस्कार हैं, जो हमे पता भी नहीं कहाँ से मिल गए वो जैविक संस्कार हैं, वो शारीरिक संस्कार हैं। यही धारणाएँ हैं, इन्हीं की बात हो रही है।

इन संस्कारों के साथ हम पहले ही लैस बैठे हैं, बंधे बैठे हैं, दबे बैठे हैं। ठीक है न? ये तो मौजूद हैं ही। ये सब संस्कार हैं जो हममें मौजूद हैं। उन संस्कारों को काटने के लिए भी हमें अब क्या चाहिए? — पुरानी धारणाओं को काटने के लिए हमने क्या कहा? धर्म क्या है? नई धारणाएँ, ऐसी धारणाएँ जो पुरानी धारणाओं को काट दे।…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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