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रिश्ते में अगर आज़ादी नहीं तो रिश्ता झूठा है
रिश्ते में अगर आज़ादी नहीं तो रिश्ता झूठा है|
आचार्य प्रशांत: मालिक मने क्या?
श्रोता : अधिकार जमाने वाला।
वक्ता: अधिकारी?
श्रोता: सर, हमारा जो अहंकार वो हमें एक भ्रम दे देता है की हम मालिक हैं|
वक्ता: सत्य से सम्बंधित एक बहुत मूलभूत बात, पर ज़रा गौर करेंगे। आध्यात्मिकता में, जो कुछ भी केंद्रीय है उसका कोई अर्थ नहीं होता। कम से कम, उसका कोई विधायक अर्थ नहीं होता; ऐफिरमेटिव, पॉजिटिव अर्थ नहीं होता। प्रत्येक शब्द, आध्यात्मिकता में अर्थ-हीन है। तो आप कहेंगे, “जब अर्थ-हीन है, तो उसका प्रयोग ही क्यों किया जाता है? जिसका कोई अर्थ नहीं उसकी उपयोगिता क्या?” उसकी उपयोगिता मात्र इतनी होती है कि वो अपने विपरीत का नकार करता है।
हमने सत्य को कभी परम कहा है, कभी मालिक कहा है, कभी खुदा कहा है, कभी स्वामी कहा है। तो मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, “मालिक माने क्या?” सवाल दूर तक जाता है, क्योंकी हमने जिसे हमने आखिरी बात माना है — आखिरी भी, पहला भी और बीच का भी, हमने जिसे सब कुछ माना है — हम उसे मालिक बोलते हैं। हम उसे प्रभु बोलते हैं, उसे परमेश्वर बोलते हैं, उसे स्वामी बोलते हैं । और मैं आपसे कह रहा हूँ कि आध्यात्मिकता में इन शब्दों का कोई अर्थ होता नहीं । मैंने आपसे पूछा, “मालिक माने क्या?” किसी ने कहा, “जिसका नेतृत्व चलता हो”, किसी ने कहा, “जिस का राज चलता हो”, किसी ने कहा, “जिसका हुकुम चलता हो”, किसी ने अहंकार के संबंध में कुछ कहा। नहीं, ये सब नहीं।
मालिक, का इतना ही अर्थ है कि जो ग़ुलाम न हो। अपने से विपरीत का निषेध। अपने से विपरीत के निषेध का मतलब ये नहीं होता कि आप विपरीत का विपरीत बन गए। इतना ही कहा जा रहा है, ‘ना-ग़ुलाम’, ग़ुलाम मालिक माने वो, जो ग़ुलाम नहीं है। इसके अलावा मालिक का कोई अर्थ नहीं है। आप कहें, “तो मालिक कौन हुआ?” कोई उत्तर दिया ही नहीं जा सकता। क्योंकि मालकियत जैसा कुछ होता नहीं।
लेकिन आध्यात्मिकता में भी भाषा का इस्तेमाल तो होता ही है। और जब भी भाषा का इस्तेमाल होता है तो गुण सूचक कुछ शब्द हमेशा आ जाते हैं। कह दिया जाएगा, “कृपालु है” , कह दिया जाएगा, “चिरंतन है”, कह दिया जाएगा, “नित्य है”, कह दिया जाएगा, “सुंदर है”, कह दिया जाएगा, “शांत है”, कह दिया जाएगा , “केंद्रीय है।” इन सारे शब्दों का इस्तेमाल सत्य के संदर्भ में होता है। और इंसान, ये बड़ी गलती करता रहा है कि इन शब्दों से वो ये समझ लेता है कि जैसे ये सारे शब्द सत्य के लिए गुण वाचक हैं। जैसे उनसे कुछ पता चलता हो सत्य के बारे में।
इन सारे शब्दों का उपयोग बस इतना है कि इनसे ये पता चलता है कि वो इनका विपरीत नहीं। और यदि कोई वास्तव में आपको समझाने वाला हो, और यदि आप किसी एक शब्द पर जा कर के अटक गए हों, आपकी उस शब्द में रूचि बैठ गयी हो, और आप सोचने लग गए हों, कि परमात्मा…