राष्ट्रवाद

जितने भी राष्ट्रों को हम जानते हैं पश्चिम के, वह ज़रूर बहुत पुराने नहीं हुए, उन राष्ट्रों के आधार में यही चीज़ें बैठी हुई हैं — रंग, नस्ल, साझा इतिहास, साझा आवास या भूगोल। भारतीय राष्ट्र के आधार में क्या है? एक भारतीय दूसरे भारतीय से किस आधार पर शताब्दियों से संबंधित अनुभव करता रहा है? या इसको ऐसे पूछ सकते हैं कि दुनिया के किसी भी अन्य दो लोगों की अपेक्षा दो भारतीयों में साझा क्या है? ऐसा क्या है दो भारतीयों में जो उन्हें विश्व के अन्य लोगों से और अन्य राष्ट्रों से पृथक करता है? सवाल रोचक है क्योंकि उत्तर में न आपको नस्ल सुनने को मिलेगा, न पंथ, न धर्म-मज़हब, न कोई भौगोलिक सीमा, न इतिहास, बल्कि कुछ और। वह क्या है? वह है एक साझा जीवन दर्शन। क्या है उस साझे जीवन दर्शन के मूल में? क्योंकि भारत में तो अनेकों प्रकार के दर्शन रहे। यह भूमि इतनी उर्वर रही है कि न जाने कितने पंथ, मत, समुदाय, मार्ग यहाँ जन्म लेते ही रहे। उन सब में एक साझी बात रही है, और वह साझी बात रही है अंतर्दृष्टि, आत्म जिज्ञासा, बाहर की अपेक्षा स्वयं को देखने की तैयारी, स्वयं को देखने को वरीयता देना। यही कारण है कि भारतवासी चाहे उत्तर का हो, दक्षिण का हो, पूर्व से लेकर पश्चिम तक, कहीं का भी हो, वह अपने बारे में कुछ बातें ज़रूर जानता है। वह यह तो ज़रूर कहेगा कि कुछ है इस पिंजड़े के भीतर। आत्मा शब्द से वह परिचित ज़रूर होगा। आत्मा शब्द का वह प्रयोग भी करता होगा किसी भी भाषा में, किसी भी तरीके से — भले ही आत्मा शब्द से वह अर्थ अलग-अलग तरीके के निकालता हो, हो सकता है कि वह आत्मा से अर्थ करता हो शुद्ध आत्मा, जीवात्मा, प्रत्यगात्मा, कुछ भी — लेकिन यह बड़ी भारी विभिन्नता है भारत राष्ट्र में और…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org