राम — निराकार भी, साकार भी
आचार्य प्रशांत: मन को अगर कुछ भाएगा नहीं तो मन जाने के लिए, हटने के लिए तैयार नहीं होगा। मन हटता ही तभी है जब उसे ऐसा कोई मिल जाता है जो एक सेतु की तरह हो: मन के भीतर भी हो, मन उसे जान भी पाए, मन उसकी प्रशंसा भी कर पाए और दूसरे छोर पर वो कहीं ऐसी जगह हो जहाँ मन अन्यथा न जा पाता हो। अब ऐसे में अवतारों का, राम का, कृष्ण का महत्व आ जाता है। एक तरफ़ तो वो व्यक्ति हैं, और उनकी जीवनी, उनकी कहानी, उनका आचरण ऐसा है जो मन को भाता है, मीठा लगता है, सुंदर लगता है। और दूसरे सिरे पर वो उसकी ओर इशारा करते हैं जो व्यक्ति से पार की बात है।
तो अभी इस चर्चा के संदर्भ में राम को दो ही समझो। एक राम तो वो हैं जो दशरथ के बेटे थे, इतिहास का एक पात्र थे, जो व्यक्ति रूप में थे, जिन्होंने जीवन जिया, लीलाएँ कीं। और दूसरे राम वो हैं जिनकी ओर कबीर इशारा करते हैं। पहले राम दूसरे राम तक जाने का द्वार हैं। पहले राम की उपयोगिता ही इतनी है कि वो दूसरे ‘राम’ तक ले जा सकते हैं। पहले और दूसरे में अंतर ये है कि दूसरा ‘राम’ एक है, पहले राम अनंत हैं।
द्वार हज़ारों हैं। राम ही ‘राम’ का द्वार हों आवश्यक नहीं है। कृष्ण भी ‘राम’ के द्वार हैं। प्रत्येक संत राम का ही द्वार है। गुरु यदि गुरु है, तो ‘राम’ का द्वार है। जिसने भी जाना है, वो ‘राम’ का ही द्वार है। सीधे-सीधे निराकार में, निर्विशेष में प्रवेश कर पाना अहंकार के लिए बड़ा मुश्किल होता है। हम छवियों में जीने के आदी हैं; हमें दृश्य चाहिए, हमें कहानियाँ चाहिए, हमें तर्क चाहिए, हमें आदर्श चाहिए। जो इतिहास पुरुष हैं राम, जो व्यक्ति हैं राम, वो हमें ऐसी कहानियाँ देते…