योजना, अकेलापन और बुद्धत्व

प्रश्न: आचार्य जी, जब अचानक मन के सामने कुछ आता है तो वह प्रतिक्रिया व्यक्त करता है — जो अच्छी भी हो सकती है व बुरी भी हो सकती है। किसी चीज़ की पुनरावृत्ति होने पर मन योजना बनाने लगता है कि — “कैसे होगा?”

आचार्य प्रशांत: मन का तो उल्लू कटेगा न क्योंकि किसी चीज़ की कभी पुनरावृत्ति होती नहीं। आप ही वह नहीं हो जो पिछली घटना के समय थे। आप वह क्यों नहीं हो? क्योंकि पिछली घटना वाले को उससे पिछली घटना का अनुभव नहीं था। इस घटना वाले को इससे पिछली वाली घटना का अनुभव नहीं है। आप ही वह नहीं हो, तो दोहराव का क्या सवाल है? पर मन अपनेआप को यह दिलासा देना चाहता है कि — “भाई, अब जो होने जा रहा है न, मुझे उसका पूर्वानुभव है। नई चीज़ नहीं है, पुरानी है; डर मत। अज्ञात में प्रवेश नहीं हो रहा है, ज्ञात है, ज्ञात है।” तो फिर कहता है, “दोहराव ही है, भाई।”

“यह वही है क्या?” कैसा पता वही है? न ये वही है, न आप वही हो, न माहौल वही है। पल में ब्रह्मांड बदल गया, आप कह रहे हो, “दोहराव है।”

प्रश्नकर्ता १: इसमें मन को डर भी लगता है कि लक्ष्य (प्रश्नकर्ता एक खिलाडी हैं) हासिल हो भी पाएगा या नहीं।

आचार्य प्रशांत: तो सीधे रहो न। डरे हुए हो, उसके कारण सारे खेल चल रहे हैं। पहला राउंड तो वह (प्रतिद्वन्द्वी) वैसे ही जीत गया। सुन ज़ू की किताब है — “आर्ट ऑफ वार”। उसमें वह जो लड़ने के तरीक़े बताता है, उसमें से यह एक है कि — सबसे बढ़िया जीत वह है जो बिना लड़े हासिल हो जाए। प्रतिपक्षी को ऐसा आक्रांत कर दो, उसके ज़हन पर ऐसे छा जाओ कि वह मैदान में आने से पहले ही ख़त्म हो…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org