योग है अपनी बेड़ियों को अपनी ही ज्वाला में गलाना

योग क्या? योग वो, जो हम सबको चाहिए। योग वो, जो हम सबकी मांग है। किसी और नाम से है, किसी और विषय वस्तु के प्रति है, पर हम सबके पास कोई न कोई मांग है ज़रूर। योग का अर्थ होता है, उससे मिल जाना जो तुम्हारी गहरी से गहरी मांग है। योग का अर्थ होता है, उसे प्राप्त कर लेना जिसे तुमने लगातार चाहा है। योग का अर्थ होता है कि अब तरस नहीं रहे। अब मन आधा-अधूरा नहीं है। ये योग है।

ऋषि हमसे कहते हैं, विस्मयो योगभूमिका:, कि योग की शुरुआत ही विस्मय है, ताज्जुब है। जिसे ये अचरज ना उठता हो, कि ये सब चल क्या रहा है? जिसके भीतर ये प्रश्न ही ना हो, उसके लिए योग की कोई संभावना नहीं है। बात सीधी है, हम में से अधिकाँश जीवन को आदतों के पीछे से देखते हैं। हम जीवन से इतने एक हो चुके होते हैं, इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं कि जो भी चल रहा होता है, हमें सहज ही लगता है। कुछ भी हमें चौंकाता नहीं है। जो भी हमारे सामने आता है, हम कहते हैं, ऐसा ही तो होता है, यही तो जीवन है; दुनिया ऐसी ही तो है, संसार ऐसे ही तो चला है और चलेगा। हम में किसी प्रकार का विरोध उठना तो छोड़िये, सवाल भी नहीं उठता। बोध तो छोड़िये, जिज्ञासा भी नहीं उठती। हम बस स्वीकार किये जाते हैं और ये स्वीकार, अप्रतिरोध नहीं है। क्योंकि जो स्वतंत्र चैतन्य प्रतिरोध कर सके, वो हमारे पास होता ही नहीं है। जो मन, होनी पर सवाल उठा सके, वो मन हमने कहीं दबा दिया होता है। तो निष्पत्ति ये होती है कि खौफ़नाक से खौफ़नाक मंज़र भी हमें साधारण लगता है। और साधारण वैसे नहीं लगता जैसा किसी ज्ञानी को लगे, साधारण ऐसे लगता है कि, खौफ़ तो जीने का तरीका है ही ना। इसी को तो जीवन बोलते हैं, तो अचम्भा कैसा?

हम देखे जाते हैं कि जीवन में शान्ति के लिए, आनंद के लिए, समर्पण के लिए कोई स्थान नहीं है। हमें कोई ताज्जुब हो नहीं होता। हम पढ़े जाते हैं कि प्रेम स्वभाव है हमारा, बोध स्वभाव है हमारा, पर भीतर योग देखते हैं और बाहर देखते हैं तो मात्र अबोध, मात्र अप्रेम, मात्र हिंसा ही दिखाई देती है और भीतर से कोई पूछता ही नहीं है कि यदि प्रेम स्वभाव है, तो ये सब चल क्या रहा है बाहर? कि यदि आत्मा बोध है, तो इतना अँधेरा क्यों? कि यदि मन को प्रेम खींचता है, तो मुझे उस प्रेम की आहट भी क्यों नहीं सुनाई देती? हम ये सवाल भी नहीं पूछते। और हम तोतों की तरह नाम भर रटे जाते हैं, शान्ति, मुक्ति, विरक्ति, सत्य। और विस्मय नहीं होता हमें कि जिन्होंने ये जाना और जान कर के उद्घोषित किया, उन्होने कैसे कर दिया? मुझे अनुभव में ही नहीं आती। और ऐसा भी कोई था, जो अनुभव के पार जा कर जान आया, और जानने के बाद, संसार को बता भी पाया, ये हुआ कैसे? और हमें कोई कौतुहल नहीं हुआ अपने बदलते रंगों को, अपने अनगिनत चेहरों को देख कर के। हम बिल्कुल चौंक नहीं पड़ते, अपने ही…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org