ये है शरीर की औकात

सबको महीने-दो महीने में एक-आध बार मरघट का चक्कर लगाना चाहिए। भई घर है अपना। जाओगे नहीं देखने? क्या हालचाल है, संगी-साथी कैसे हैं? कोई दिक़्क़त तो नहीं है? वही घर है! बड़े इज़्ज़तदार बनते हैं।

पर ये बातें हमने छुपा रखी हैं। और ये बड़ी आम बातें हैं, पर हम उनको दबाए रहते हैं, उनपर पर्दा डाले रहते हैं। खुलेआम बात किया करिए। कोई बहुत पीछे पड़ा हो कि — “चलो, चलो कहीं मिलते हैं, चैट (बातचीत) करते तो बहुत दिन हो गए, अब मिलना भी तो चाहिए,” तो जी.पी.एस. वहीं का। और जब वो वहाँ पहुँचे, तो कहो, “व्हाट ए कूल ग्रेवयार्ड (क्या मस्त मरघट है)।” सारा रोमांस उतर जाएगा।

और जिसका रोमांस इतने पर भी न उतरे, समझ लो सच्चा आशिक़ है। उसके साथ ठीक है।

औकात राख की, बात लाख की ।
ये है अफ़साना-ए-जिस्म ।।

लाख से नीचे की बात नहीं करता, और औकात है राख की।

अपने आप को जब आईने में निहारें कि — “कितना ख़ूबसूरत लग रहा हूँ,” तो अपनी लाश भी देख लिया करें उसी आईने में। ज़िंदगी फिर सच्ची बीतेगी, झूठ से बचे रहेंगे — “साधो ये मुर्दों का गाँव।” फ़क़ीरों के तो अंदाज़ ही ऐसे रहे हैं। वो सुना है न ? — एक फ़क़ीर बैठा था पेड़ के नीचे, गाँव से थोड़ा बाहर। उसके पास एक यात्री आया। गाँव था पेड़ के दाईं ओर, और मरघट था बाईं ओर। यात्री बोला, “बस्ती कहाँ है?,” तो फ़क़ीर बोला (बाईं ओर इंगित करते हुए) “उधर।”

तो वो पथिक बाईं ओर चल दिया।

थोड़ी देर बाद वो पथिक लाल-पीला होकर वापिस लौटा और बोला, “क्या आदमी हो तुम? हमें…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org