ये जान कर भी क्या पाओगे?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं जानना चाहती हूँ कि मैं आध्यात्मिक कैसे बन सकती हूँ। आध्यात्मिक बनने के लिए कोई अलग तरीका या टिप्स (सलाहें) हैं?

आचार्य प्रशांत: आध्यात्मिक होने का मतलब है जानने, समझने की इच्छा रखना। अब ऐसा तो कोई होता ही नहीं जिसमें जानने, समझने की कोई इच्छा ही नहीं है। लेकिन हम ऐसी चीज़ों को जानने-समझने में ज़्यादा इच्छा दिखाने लगते हैं जिनको जान-समझ कर भी हमको कुछ मिल नहीं जाना है, या कुछ मिलना भी है तो छोटा-मोटा।

ईमानदारी से वो जानने की कोशिश करना है जिसे जानने से जीवन पर फ़र्क पड़ेगा। इसे अध्यात्म कहते हैं।

'ईमानदारी' केंद्रीय शब्द है। इसमें इमादारी माने सच्चाई। मैं बार-बार बहुत उत्सुकता दिखाऊँ कि, "ये तौलिया क्या है? ये तौलिया क्या है?" पता तो चल ही जाएगा की तौलिया क्या है। प्रयोग करूँगा, पढ़ूँगा। किस मशीन से बनता है, इसमें ये जो प्रयोग हो रहा है ये कपड़ा कहाँ से आता है, ये फाइबर क्या है, जितना कुछ भी इसके बारे में जाना जा सकता है वो जान तो जाऊँगा ही। मान लो ये सब जानने में मैने लगा दिए दो साल। उससे मुझे लाभ क्या हो गया? मैं नहीं कह रहा कोई लाभ नहीं हुआ, पर कितना लाभ हो गया?

और दूसरी ओर वो जिज्ञासाएँ हैं जो जीवन के केंद्र में होती हैं। उन पर ध्यान केंद्रित करना होता है, उनके बारे में आग्रह से पूछना पड़ता है। समझने की कोशिश करनी पड़ती है। ऐसे समझ लो कोई बहुत परेशान चल रहा है, मान लो। इतने सारे लोग होते हैं जो कहते हैं कि वो डिप्रेशन, एंग्जायटी (अवसाद) के मरीज़ हैं। इतने लोग हैं जो आत्महत्या कर लेते हैं। ऐसा होता है न? उन लोगों की ज़िंदगी में वजहें क्या होती हैं? क्या ये वजहें होती हैं कि उनको इस तौलिए का कुछ नहीं पता था? क्या ये वजहें होती हैं कि इनको रिकॉर्डर वगैरह की कोई जानकारी…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org