ये आशिक़ी ले डूबी तुम्हें
प्रश्न: आचार्य जी, प्रेम में इतना दर्द क्यों होता है? इश्क़ में इतना दर्द क्यों मिलता है? यह भ्रमवश उपजी आशिक़ी किस तरह बर्बाद कर रही है?
आचार्य प्रशांत: जिसको तुम इश्क़ कहते हो, वो और क्या होता है? किसी की खुशबू, किसी की अदाएँ, किसी की बालियाँ – यही तो है। ये न हो तो कौन-सा इश्क़।
किसी की खनखनाती हँसी,
किसी की चितवन,
किसी की लटें,
किसी की ज़ुल्फ़ें,
ये सब क्या हैं?
ये इन्द्रियों पर हो रहे आक्रमण हैं।
तुम ऐसे गोलू हो कि तुम आक्रमण को आमन्त्रण समझ बैठते हो।
बड़े ख़ास लोग हैं हम। आक्रमण को आमन्त्रण समझना माने कि – जैसे तुम्हें पीटा जा रहा हो, और तुम सोच रहे हो कि तुम्हारा सम्मान बढ़ाया जा रहा है। वो तुम्हें पीटा जा रहा है; वो लट, वो हठ, वो सब तुम्हारा मन बहलाव करने के लिए नहीं हैं, उस सब से तुम्हारा मनोरंजन नहीं हो रहा है। लगता ऐसा ही है कि जैसे बड़ा सुख मिल रहा है – “आ, हा, हा। क्या भीनी-भीनी सुगन्ध है, क्या मन भावन छवि है” – पर वो सब तुम्हारी आंतरिक पिटाई चल रही है।
बड़ा पहलवान, टुइयाँ सिंह को उठा-उठाकर पटक रहा है बार-बार। तुम टुइयाँ सिंह हो। और वो जो सामने है, वो दिखने में भले ही दुबली-पतली सी हो, पर वो गामा पहलवान है।
ये सूक्ष्म बात है, ज़रा समझना।