ये आशिक़ी ले डूबी तुम्हें
जिसको तुम इश्क़ कहते हो, वो और क्या होता है? किसी की खुशबू, किसी की अदाएँ, किसी की बालियाँ — यही तो है। ये न हो तो कौन-सा इश्क़? किसी की खनखनाती हँसी, किसी की चितवन, किसी की लटें, किसी की ज़ुल्फ़ें, ये सब क्या हैं? ये इन्द्रियों पर हो रहे आक्रमण हैं। तुम ऐसे गोलू हो कि तुम आक्रमण को आमन्त्रण समझ बैठते हो।
बड़े ख़ास लोग हैं हम। आक्रमण को आमन्त्रण समझना माने कि — जैसे तुम्हें पीटा जा रहा हो, और तुम सोच रहे हो कि तुम्हारा सम्मान बढ़ाया जा रहा है। वो तुम्हें पीटा जा रहा है; वो लट, वो हठ, वो सब तुम्हारा मन बहलाव करने के लिए नहीं हैं, उस सब से तुम्हारा मनोरंजन नहीं हो रहा है। लगता ऐसा ही है कि जैसे बड़ा सुख मिल रहा है — “आ, हा, हा। क्या भीनी-भीनी सुगन्ध है, क्या मन भावन छवि है” — पर वो सब तुम्हारी आंतरिक पिटाई चल रही है। बड़ा पहलवान, टुइयाँ सिंह को उठा-उठाकर पटक रहा है बार-बार। तुम टुइयाँ सिंह हो। और वो जो सामने है, वो दिखने में भले ही दुबली-पतली सी हो, पर वो गामा पहलवान है।
ये सूक्ष्म बात है, ज़रा समझना।
तुम समझते हो कि तुम बड़ी पहलवानी करते हो, जिम जाते हो, तुमने डोले बना लिए हैं; ये कुछ नहीं हैं। ये ऊपर-ऊपर से हैं तुम्हारे डोले, अन्दर से तुम टुइयाँ लाल हो। ज़रा-सा तुम पर रूप-यौवन-छवि का धक्का लगता है, तुम गिर पड़ते हो। ये मज़बूती की निशानी है, या कमज़ोरी की? तो कमज़ोर को ‘टुइयाँ’ नहीं बोलूँ, तो क्या बोलूँ? आँखें चार हुईं नहीं कि तुम बेज़ार हुए; एकदम हिल गए।
और सामान्यतः अगर कोई आदमी पिटता है, उसमें इतनी अक्ल तो होती ही है कि वो जान जाता है कि…